Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४०१ अभिप्राय यह है कि कर्म परिणामी है, क्योंकि उसका कार्य शरीर आदि परिणामी है। जिसका कार्य परिणामी हो, वह स्वयं भी परिणामी होता है। जैसे दूध का कार्य दही का परिणामी होने के कारण अर्थात् दही के छाछ रूप में परिणत होने के कारण उसका कारण रूप दूध भी परिणामी है, वैसे ही कर्म के कार्य शरीर के परिणामी (विकारी) होने के कारण कर्म स्वयं भी परिणामी है । २६२
विचित्रता में कर्म की कारणता
१. परिणामों की विचित्रता का कारण : कर्म
जीव के साथ संबद्ध कर्मपुद्गल विचित्र हैं। कारण यह है कि अन्य बाह्य पुद्गलों की अपेक्षा आन्तरिक कर्म - पुद्गलों में यह विशेषता है कि वे जीव द्वारा गृहीत हुए हैं। इसी कारण वे कर्म जीवगत विचित्र सुख - दुःख के कारण भी बनते हैं। यदि बादल आदि बाह्य पुद्गल नाना रूप से परिणमन करते हैं तो जीवों के द्वारा परिगृहीत कर्म भी विचित्र रूप से परिणमन कर सकते हैं । २६३
जिस प्रकार बिना किसी के प्रयत्न के स्वाभाविक रूपेण बादल आदि पुगलों में इन्द्रधनुष आदि रूप जो विचित्रता होती है, उसकी अपेक्षा किसी कारीगर द्वारा बनाए गए पुद्गलों में एक विशिष्ट प्रकार की विचित्रता होती है । उसी प्रकार जीव द्वारा गृहीत कर्म - पुलों में नाना प्रकार के सुख-दुःख उत्पन्न करने की विशिष्ट प्रकार की परिणाम विचित्रता क्यों नहीं होगी ? २६४ अर्थात् अवश्य होगी। इस प्रकार कर्म में नाना प्रकार का परिणमन होने से कर्म विचित्र सिद्ध होता है।
२. भव विचित्रता का कारण : कर्म
तीर्थंकर महावीर से सुधर्मा स्वामी जिज्ञासा करते हैं कि कारणानुरूप कार्य मानने पर भी भवान्तर में विचित्रता की संभावना कैसे बनती है अर्थात् मनुष्य मरकर देव तिर्यच भव में कैसे उत्पन्न हो सकता है? २६५
भगवान फरमाते हैं कि तुम बीज के अर्थात् कारण के अनुरूप ही अंकुर अर्थात् कार्य मानते हो तो भी तुम्हें परजन्म में जीव में वैचित्र्य मानना ही पड़ेगा। कारण कि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं, किन्तु उसका कर्म है और वह विचित्र होता है। कर्म के हेतुओं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग में विचित्रता है, कर्म भी विचित्र है। कर्म के विचित्र होने के कारण जीव का भवांकुर भी विचित्र ही होगा। यह बात तुम्हें माननी चाहिए। अतः मनुष्य मरकर अपने कर्मों के अनुसार नारक, देव अथवा तिर्यंच रूप में भी जन्म ले सकता है। २६६
अतः
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