Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४०३ से कर्म और कर्म से देह के मध्य संबंध जानना चाहिए। इस प्रकार देह और कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है; अत: कर्म सन्तति अनादि माननी चाहिए। जिनका परस्पर कार्य-कारण भाव होता है, उनकी सन्तति अनादि होती है।२७० कर्म का कर्ता : जीव
विशेषावश्यक भाष्य में छठे गणधर से भगवान महावीर की चर्चा में जीव को कर्म का कर्ता स्वीकार करते हुए कहा गया है
कत्ता जीवो कम्मस्स करणओ जह घडस्स घडकारो। एवं चिय देहस्स वि कम्मकरणसंभवाउ ति।।२७९
अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दंडादि करण से युक्त कुम्हार घट का कर्ता है; उसी प्रकार कर्मरूप (क्रियारूप) करण से जीव कर्मबंध का कर्ता है। इसी न्याय से कर्मरूप करण के द्वारा शरीर का कर्ता आत्मा है। अत: जीव कर्म द्वारा शरीर उत्पन्न करता है और शरीर द्वारा कर्म को उत्पन्न करता है। इस प्रकार जीव कर्म और शरीर दोनों का कर्ता है।२७२ कर्मबंध अनादि सान्त है
जो अनादि होता है, वह अनन्त भी होता है। मण्डिक गणधर द्वारा ऐसी शंका किए जाने पर भगवान महावीर ने कहा
जं संताणोऽणाई तेणाणतोऽवि णायमेगंतो।
दीसइ संतो वि जओ कत्थई बीयंकुराईणं।।२७३ ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है कि जो अनादि हो वह अनन्त ही हो। कारण कि बीज-अंकुर की संतान यद्यपि अनादि है तथापि उसका अन्त हो जाता है। इसी प्रकार अनादि कर्म संतान का भी नाश हो सकता है।
बीज तथा अंकुर में से किसी का भी यदि अपने कार्य को उत्पन्न करने से पूर्व ही नाश हो जाए तो बीजांकुर की संतान का भी अन्त हो जाता है। यही बात मुर्गी और अण्डे के विषय में भी है कि उन दोनों की संतान अनादि होने पर भी इस अवस्था में नष्ट हो जाती है, जब दोनों में से कोई एक अपने कार्य को उत्पन्न करने के पूर्व ही नष्ट हो जाए।२७४ ये दोनों उदाहरण बंध को अनादि एवं सान्त सिद्ध करते - हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य उदाहरण निम्न प्रकार है
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