Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३९५ की चर्चा है। उसका अभिप्राय भी यही है कि शुभ कर्म के फलरूप देवत्व और अशुभकर्म के फलस्वरूप नारकत्व की प्राप्ति होती है। इस प्रकार प्रायः समस्त गणधरवाद में कर्म-चर्चा को पर्याप्त महत्त्व मिला है।
विभिन्न गणधरों के साथ चर्चा में जो कर्मविषयक बिन्दु उभरे हैं, उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा हैकर्म की सिद्धि : विभिन्न हेतुओं से
प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा ज्ञानावरणादि परमाणु संघात रूप कर्म की सिद्धि नहीं होने से अग्निभूति के मन में कर्म के अस्तित्व के संबंध में संशय था।३१ १. सुख:दुःख की अनुभूति से- इस संशय-निवारण में और कर्म की सिद्धि में
भगवान महावीर कहते हैं कि तुम्हारा संशय अयुक्त है, क्योंकि मैं कर्म को प्रत्यक्ष देखता हूँ। तुमको वह प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु तुम अनुमान से उसकी सिद्धि कर सकते हो। इस अनुमानार्थ हेतु है- 'अणुभूइमयं फलं जस्स त्ति २३२ अर्थात् व्यक्ति को सुख-दुःख की अनुभूति-रूप कर्म के फल (कार्य). प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं। इस कार्य के पीछे कर्म उसी प्रकार हेतु है जिस प्रकार अंकुर के पीछे बीज।२३ इस पर पुनः अग्निभूति प्रश्न उपस्थित करते हैं कि 'सो दिये चेव मई वभिचाराओ न तं जुत्तं २३४ सुगन्धित फूलों की माला, चन्दन आदि पदार्थ सुख के हेतु हैं और साँप का विष, काँटा आदि पदार्थ दु:ख के हेतु हैं। जब इन सब दृष्ट कारणों से सुख-दुःख होता हो तब उसका अदृष्ट कारण कर्म क्यों माना जाए?" भगवान प्रत्युत्तर देते हैं
जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेउं। कज्जत्तणओ गोयम! घडो ब्व, हेऊ य सो कम्म।। २३६
सुख-दुःख के दृष्ट साधन अथवा कारण तुल्य रूप से उपस्थित होने पर भी उनके फल में जो विशेषता दिखाई देती है वह निष्कारण नहीं हो सकती। यह विशेषता घट के समान कार्य रूप है। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे परमाणु के घटादि कार्य प्रत्यक्ष हैं और परमाणु अप्रत्यक्ष हैं वैसे ही
इस विशेषता रूपी कार्य के जनक अप्रत्यक्ष कर्म होने चाहिए। २. कार्मण शरीर की सिद्धि देहान्तर से- बालक का शरीर देहान्तर पूर्वक .. उत्पन्न होता है। वह देहान्तर कार्मण शरीर है। जिस प्रकार युवा का शरीर
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