Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३९१ (४) ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि के प्रति द्वेष रखना (५) ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना ६. विद्वान् और सम्यक् दृष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना। इन ६ प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है। कर्मग्रन्थ में भी उपर्युक्त ६ कारण मान्य है। १९८ ३. असाता-सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण
"दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यस'
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यस "भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यास्य'२००
१. दुःख, २. शोक, ३. ताप, ४. आक्रन्दन, ५. वध, ६. परिवेदन ये ६ असातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ प्रकार के हो जाते हैं। कर्मग्रन्थ में गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गए हैं।०१ भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षान्ति और शौच - ये सातावेदनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योगसाधना, कषाय-विजय, दान और दृढ़ श्रद्धा माना गया है।०२ ४. दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्मबन्ध के कारण
"केवलिश्रुतसंङ्घ धर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य'२०३
"कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य'२०४ सर्वज्ञ श्रुत, संघ, धर्म और देव के अवर्णवाद (निन्दा) के दर्शनमोह तथा कषाय जनित आत्मपरिणाम को चारित्रमोह का कारण माना गया है। कर्मग्रन्थ के अनुसार उन्मार्ग देशना, सन्मार्ग का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थकर, मुनि, चैत्य और धर्मसंघ के प्रतिकूल आचरण दर्शनमोह बन्ध के कारण हैं तथा कषाय, हास्यादि और विषयों के अधीन होना चारित्र मोह कर्म बन्धन के कारण हैं।०५ ५. नरक-तिर्यच-मनुष्य-देव आयुष्य कर्मबन्ध के कारण
"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः १२०६ "माया तैर्यग्योनस्य'R०७ "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य'२०८ "सरागसंयमसंयमासंयमकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य' २०९
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