Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३७८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
"जोगा पयडिपएस'१७९ अर्थात् प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं। केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बन्ध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कषायभाव के कारण कर्म का बन्धन इसी प्रकार का होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल, अस्थायी और नाममात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता।
"ठिइअणुभागं कसायाउ'८० अर्थात् स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है, उससे अमुक समय तक आत्मा से पृथक न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलों में निर्मित होती है। इसी कषाय से जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ और स्नेह प्रतिबद्ध है तथा परस्पर एकमेक होकर रहते हैं।१८१ कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ
जैन दर्शन में कर्म की विविध अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। ये अवस्थाएँ कर्म के बन्धन, उद्वर्तन, सत्ता, उदय, क्षय आदि से सम्बन्धित हैं। इनको मुख्य रूप से १० भेदों में वर्गीकृत करते है। वे निम्न प्रकार हैं-(१) बन्धन (२) सत्ता (३) उदय (४) उदीरणा (५) उद्वर्तना (६) अपवर्तना (७) संक्रमण (८) उपशमन (९) निधत्ति (१०) निकाचन।।
बन्धन- किसी विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि के प्रति अनुकूलता में राग रूप प्रवृत्ति करने से और प्रतिकूलता में द्वेष रूप प्रवृत्ति करने से उसके साथ संबन्ध स्थापित हो जाता है। यह संबन्ध ही बन्ध है, बन्धन है। इस प्रकार राग-द्वेष करने का प्रभाव चेतना के गुणों पर एवं उन गुणों की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित माध्यम शरीर, इन्द्रिय, मन वाणी आदि पर पड़ता है। अतः राग-द्वेष रूप जैसी तीव्र या मन्द प्रवृत्ति होती है. वैसे ही कर्म बन्धते हैं। जिस प्रकार शरीर में भोजन के द्वारा ग्रहण किया गया अच्छा पदार्थ शरीर के लिए हितकर और बुरा पदार्थ अहितकर होता है इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शुभ कर्म परमाणु आत्मा के लिए सुफल और सौभाग्यशाली एवं ग्रहण किए अशुभ कर्म परमाणु आत्मा के लिए कुफल दुर्भाग्यदायी होते हैं। सत्ता- कर्म पुद्गल बन्धन के बाद से निर्जरा के पूर्व तक आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं, उसे सत्ता कहते हैं। कर्म विपाक की काल-मर्यादा के परिपक्व न
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