Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३७७ इस कर्मबन्ध की प्रक्रिया में बन्ध की चार अवस्थाएँ बनती हैं वे निम्न है:
__ "पयइठिइरसपएसा तं चउहा मोयगस्स दिटुंता'१७४
कर्म-बन्ध लड्ड के दृष्टान्त से प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश की अपेक्षा से चार प्रकार का है१. प्रकृति बन्ध- "ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभावः प्रकृति: १५ अर्थात् ज्ञान को
ढकनादि स्वभाव प्रकृति है। यह प्रकृति बन्ध कर्म परमाणुओं की प्रकृति (स्वभाव) का निश्चय करता है अर्थात् कर्म के द्वारा आत्मा की ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति आदि किस शक्ति का आवरण होगा, इस बात का निर्धारण कर्म
की प्रकृति करती है। २. प्रदेश बन्ध- “आत्मप्रदेशेषु व्यर्धगुणहानिगुणितसमयप्रबद्धमात्राणि
सिद्धराश्यनन्तकभागप्रमितानामभव्याजीवस्यानन्तगुणानां सर्वकर्मपरमाणूनां परस्पर- प्रदेशानुप्रवेशलक्षणः प्रदेशबन्धः। '७६ अर्थात् आत्मा के प्रदेशों में अढाई गुणहानि गुणित समय प्रबद्ध मात्र की सत्ता रहती है तथा प्रतिसमय सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण या अभव्य जीवों के अनन्तवें समस्त कर्म परमाणुओं का परस्पर प्रदेशों में अनुप्रवेश होना प्रदेशबन्ध है। कर्म परमाणु आत्मा के किस विशेष भाग का आवरण करेंगे, इसका निश्चय प्रदेश बन्ध करता है। यह कर्मफल की विस्तार-क्षमता का निर्धारक है। कर्म-दलिकों की संख्या की प्रधानता से कर्म-परमाणुओं
का ग्रहण प्रदेश-बन्ध कहलाता है। ३. स्थिति बन्ध- "ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीनां ज्ञानप्रच्छादनादिस्वस्वभावा
परित्यागेनावस्थानं स्थितिः, तत्कालचोपचारात्' अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों का ज्ञान को ढकने आदि रूप अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए स्थित रहना स्थिति है। उसके काल को उपचार से स्थिति बंध कहा जाता है। कर्म परमाणु कितने समय तक सत्ता में रहेंगे और कब अपना फल देना प्रारम्भ करेंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति-बन्ध
करता है। यह समय मर्यादा का सूचक है। ४. अनुभाग बन्ध- "कर्मप्रकृतीनां तीव्रमन्दमध्यमशक्तिविशेषोऽनु
भाग: ११७८ अर्थात् कर्म प्रकृतियों की तीव्र, मन्द, मध्यम शक्ति विशेष को अनुभाग कहते हैं। यह कमों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मन्दता का निश्चय करता है। यह कमों की तीव्रता या गहनता को बतलाता है।
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