Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३५२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
संसार में कर्म ही मनुष्यों का पुत्र-पौत्र के समान अनुगमन करने वाला है। कर्म ही दुःख-सुख के संबंध का सूचक है। इस जगत् में कर्म ही परस्पर एक दूसरे को प्रेरित करते हैं। हम भी कर्मों से ही प्रेरित हुए हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी के लौंदे से जो-जो बर्तन चाहता है, वही बना लेता है; उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है। नित्य-निरन्तर एक-दूसरे से मिले हुए धूप और छाया के समान कर्म और कर्ता दोनों एक-दूसरे से संबद्ध होते हैं।५३
कर्मफल के संबंध में महाभारत में कहा गया है कि पूर्वजन्मों के शुभकार्यों के फलस्वरूप मनुष्य को देवलोक मिलता है। शुभ एवं अशुभ कर्मों के मिश्रण से मनुष्य जन्म और केवल अशुभ कर्मों के उदय से अधोगति की प्राप्ति होती है, जिनमें विविध प्रकार के दुःखों को सहना पड़ता है।५४
महाभारत में कर्मफल की चर्चा में पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म की मान्यता को भी पूर्णरूपेण स्वीकार किया गया है तथा कहा गया है कि पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म कर्म सिद्धान्त की दो ऐसी मान्यताएँ हैं जिनको स्वीकार किए बिना कर्मफल की यथोचित व्याख्या असंभव है। यही कारण है कि महाभारत में अदृष्टवाद एवं जन्मान्तरवाद के संबंध में कोई संशय दृष्टिगत नहीं होता। आशावतरण अध्याय में कौरवों एवं पाण्डवों के पूर्वजन्म का सम्पूर्ण वृत्तान्त दिया गया है।५
मोक्ष भी कर्मवाद का अभीष्ट अंग है। महाभारत में इस पर भी गहराई से विचार किया गया है। मोक्ष का अर्थ महाभारतकार के अनुसार अनिर्वचनीय आनन्द की स्थिति है। आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य होना ही परम सुख है।
___महाभारत के शान्तिपर्व में भिन्न-भिन्न प्रकरणों में मोक्ष की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों का निर्देश किया गया है। राजधर्म प्रकरण में राजा के द्वारा काम, क्रोध आदि से रहित होकर उचित रूप में प्रजा का पालन, दान तथा निग्रह आदि अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने पर मोक्ष पद प्राप्त करने की चर्चा की गयी है।५६ मोक्षधर्म प्रकरण में काम, क्रोध आदि दोषों का त्याग, इन्द्रिय, संयम तथा निष्काम योग आदि का आचरण मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक मार्ग कहा गया है। भगवद्गीता में कर्म की अवधारणा
___गीता हिन्दू परम्परा का एक बहुमान्य एवं बहुचर्चित ग्रन्थ है। इसमें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को दृष्टिगत किया गया है। इसकी कर्मसिद्धान्त की व्याख्या विभिन्न दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि इसमें कर्मसिद्धान्त की किन्हीं नवीन मान्यताओं की स्थापना नहीं है, प्रत्युत इसमें कर्मसंबंधी मान्यताओं को सहज ढंग से विवेचित एवं विश्लेषित करने का भरपूर प्रयत्न किया गया है।
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