Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद भीष्म ने गौतमी, ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल का संवाद रूप ऐतिहासिक उदाहरण दिया, जिसके अन्तर्गत कहा गया
यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः ।
४९
विनाशहेतुः कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम्।।
है।
अर्थात् जीव अपने कर्म से ही मरता है। कर्म ही उसके विनाश का कारण हम सब लोग कर्माधीन हैं।
समाधान
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महाभारत में युधिष्ठिर मार्कण्डेय मुनि से प्रश्न करते हैं
१. शुभ और अशुभ कर्म करने वाला जो पुरुष है, वह अपने उन कर्मों का फल कैसे भोगता है?
२. सुख और दुःख की प्राप्ति कराने वाले कर्मों में मनुष्यों की प्रवृत्ति कैसे होती है?
३. मनुष्य का किया कर्म इस लोक में ही उसका अनुसरण करता है अथवा पारलौकिक शरीर में भी?
४. देहधारी जीव अपने शरीर का त्याग करके जब परलोक में चला जाता है, तब उसे शुभ और अशुभ कर्म उसको कैसे प्राप्त करते हैं?
५.
इहलोक व परलोक में जीव का उन कर्मों के फल से किस प्रकार संयोग होता है?
कर्म के स्वरूप को समझाते हुए मुनि मार्कण्डेय समाधान देते हैं'जन्तोः प्रेतस्य कौन्तेय गतिः स्वैरिह कर्मभिः " अर्थात् संसार में मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उनके अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही होती है।
मनुष्य ईश्वर के रचे हुए पूर्व शरीर के द्वारा शुभ और अशुभ कर्मों की बहुत बड़ी राशि संचित कर लेता है । फिर आयु पूरी होने पर वह इस जरा-जर्जर स्थूल शरीर का त्याग करके उसी क्षण किसी दूसरी योनि (शरीर) में प्रकट होता है। एक शरीर को छोड़ने और दूसरे को ग्रहण करने के बीच में क्षणभर के लिए भी वह असंसारी नहीं होता। दूसरे स्थूल शरीर में पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म छाया की भाँति सदा उसके पीछे लगा रहता है और यथासमय अपना फल देता है। १२
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