Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३४९ 'यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते २७ 'यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाशुभम्।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः।। ८ अर्थात् जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल भोगता है। यदि मनुष्य शुभ कर्म करता है तो सुख को और अशुभ कर्म करता है तो दुःख को प्राप्त करता है। अतः कहा जा सकता है कि जीव स्वयं के कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।
राजधन और सुख प्राप्ति रूपी कार्य धर्माचरण रूपी कारण से प्राप्त होता है और दुःख भोग रूपी कार्य अधर्म या पापसेवन से होता है। इसलिए जो सुख चाहता है उसे धर्माचरण करना चाहिए तथा पाप का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। अत: कहा है
धर्माद राज्यं धनं सौख्यामधर्माद् दुःखमेव च।
तस्माद् धर्म सुखार्थाय कुर्यात् पापं विसर्जयेत्।।९
उपर्युक्त श्लोक से कर्म और कर्मफल के मध्य कारण-कार्य संबंध स्पष्ट होता है। अतः जो व्यक्ति क्रियमाण कर्म के फल का विचार न करके केवल कर्म की ओर ही दौड़ता है; वह फल मिलने के समय उसी तरह शोक करता है जिस तरह कोई आम-वृक्ष काटकर पलाश को सींचने वाला शोक करता है।
___ रामायण में पुनर्जन्म पर अटूट आस्था व्यक्त हुई है। अयोध्याकाण्ड में सीता राम से कहती हैं कि आपके साथ वन अनुगमन से परलोक में भी मेरा कल्याण होगा और जन्म-जन्मान्तर तक आपके साथ मेरा संयोग बना रहेगा। क्योंकि इस लोक में पिता आदि के द्वारा जो कन्या जिस पुरुष को अपने धर्म के अनुसार जल से संकल्प करके दे दी जाती है, वह मरने के बाद परलोक में भी उसी की स्त्री होती है। यह विवरण कर्म-पुनर्जन्म में अटूट विश्वास का ज्वलन्त प्रमाण माना जा सकता है।
पूर्वजन्म के कर्मों का भावी प्रभाव राम-वनगमन के प्रसंग पर दृग्गोचर होता है
'मन्ये खलु मया पूर्व विवत्सा बहवः कृताः।
प्राणिनो हिंसिता वापि तन्मामिदमुपस्थितम्।। १२
रामवनगमन के समय राजा दशरथ विलाप करते हुए कहते हैं कि लगता है मैंने पूर्वजन्म में अवश्य ही बहुत सी गायों का उनके बछड़ों से वियोग कराया है
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