Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३४७ पुराणों में कर्म-प्रतिष्ठा श्रीविष्णु महापुराण में 'भाग्य' की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा है
‘सर्व एव महाभाग महत्त्वं प्रति सोद्यमाः।
तथापि पुंसां भाग्यानि नोयमा भूतिहेतवः।।२८ हे महाभाग! महत्त्व प्राप्ति के लिए सभी यत्न करते हैं तथापि वैभव का कारण तो मनुष्य का भाग्य ही है, उद्यम नहीं। इसलिए जिसे महान् वैभव की इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचय का ही यत्न करना चाहिए; और जिसे मोक्ष की इच्छा हो उसे भी समत्वलाभ का ही प्रयत्न करना चाहिए।२९ इस कथन से 'पूर्वकृत कर्म' को ही भाग्य के रूप में स्वीकारा है, ऐसा ज्ञात होता है।
कर्म और विद्या के दो भेद बताते हुए कहा है
'तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्।।* कर्म वही है जो बंधन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो। इसके अतिरिक्त अन्य कर्म तो परिश्रम रूप तथा अन्य विद्याएँ कलाकौशलमात्र ही हैं अर्थात् कर्म दो प्रकार के हैं- १. वे कर्म जो बंधन के हेतु नहीं। २. वे कर्म जो बंधन के हेतु हैं।
मार्कण्डेय पुराण में भी दैव की दिव्यता प्रतिपादित हुई है। पूर्वकाल में मुनि सुकृष द्वारा अपने पुत्रों के अविनय किए जाने पर शाप दिया गया कि वे सब तिर्यग्योनि में उत्पन्न हों। अपनी त्रुटि पर पश्चात्ताप करते हुए पुत्रों (शिष्यों) ने उनसे जब क्षमायाचना की और कहा कि आप हमें शाप मुक्त कीजिए। तब ऋषि कहते हैं
दैवमानं परं मन्ये धिक्यौरुणमनर्थकम्। अकार्य कारितो येन बलादहमचिन्तितम्।। नास्त्यसाविह संसारे यो न दिष्टेन बाध्यते।
सर्वेषामेव जन्तूनां दैवाधीनं हि चेष्टितम्।।३२ अर्थात् वृथा पौरुष को धिक्कार है, मैं विचारता हूँ दैव (नियति) ही इस विषय में बली है, दैव ने ही मुझको इस प्रकार के अचिन्तित अकार्य में प्रवृत्त किया
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