Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ३४५ शुभ एवं अशुभ कर्मों से अपने को पृथक् समझने वाला शुभ-अशुभ कर्मों से लिप्त नहीं होता। ८. 'सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः क्रिया: कुर्वन्तीति'-वज्रसूचिकोपनिषद्
सभी प्राणियों के प्रारब्ध संचित और आगामी कर्म में समानता देखने से ऐसा बोध होता है। कर्म से प्रेरित होकर लोग क्रियाएँ करते हैं। ९. 'कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्याया च विमुच्यते'-संन्यासोपनिषद् २.९८
जीव या प्राणी कर्म से बंध को प्राप्त होता है तथा विद्या से विमुख होता है।२७
उपनिषदों में कर्म के सूक्ष्म, गहन एवं सारगर्भित विवेचन के साथ कर्मबंधन, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि कर्म विषयक अनेक तत्त्वों की चर्चा है। उपनिषदों में कर्मबंध विषयक इस विचार का उल्लेख मिलता है कि शुभकर्मों से शुभ तथा अशुभ कर्मों से अशुभ कर्मों का बंध होता है। उपनिषदों के अनुसार अविद्या बंधन का कारण है और विद्या से मोक्ष प्राप्त होता है। उपनिषदों में जीव के मानसिक व्यापार को ही कर्मबंधन का प्रबल कारण माना गया है- "मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः । गीता में भी अर्जुन ने कृष्ण को कहा- 'चंचलं हि मनः कृष्ण: १९
- सभी उपनिषदों से मुख्य रूप से यही शिक्षा मिलती है कि आत्मज्ञान से ब्रह्म का साक्षात्कार करने पर जीव कर्मबंधन से मुक्त होकर परमसुख और शांति प्राप्त कर सकता है। यथा१. 'ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणि: २० अर्थात्
प्रकाशमय परमात्मा को जान लेने पर समस्त बंधनों का नाश हो जाता है, क्योंकि क्लेशों का नाश हो जाने के कारण जन्म-मृत्यु का सर्वथा अभाव हो जाता है। 'तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावाद्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः २१ अर्थात् उस ईश्वर का निरन्तर ध्यान करने से और मन की तन्मयता से अन्त में समस्त माया की निवृत्ति हो जाती है।
कठोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् और छान्दोग्योपनिषद् में पुनर्जन्म सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। कठोपनिषद् में नचिकेता अपने पिता से कहता है- "सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुन: २२ मरणधर्मा मनुष्य अनाज
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