Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३०० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
स्थापना तो हो जाती है, लेकिन इस कथन की संगति जैन विचारणा की त्रिकालज्ञसर्वज्ञता की धारणा के साथ नहीं बैठती है । यदि सर्वज्ञ त्रिकालज्ञ है तो फिर वह भविष्य को भी जानेगा, लेकिन अनियत भविष्य नहीं जाना जा सकता । यहाँ पर दो ही मार्ग हैं या तो सर्वज्ञ की त्रिकालज्ञता की धारणा को छोड़कर उसका अर्थ आत्मज्ञान या दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान लिया जाए अथवा इस धारणा को छोड़ा जाए कि सब भाव अनियत है । " २३९
सर्वज्ञ के जानने मात्र से दूसरे का पुरुषार्थ प्रभावित नहीं होता । जैसा होता है उसे वे वैसा जानते हैं। इसमें नियतिवाद नहीं आता। जीवों का पुरुषार्थ इसमें सुरक्षित रहता है, किन्तु उन्होंने जैसा जाना है वैसा ही होगा, इस पक्ष को मानने पर नियतिवाद की आशंका आती है। इस तथ्य को समझने के लिए आगम का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि मुनि बनकर नगर के बाहर ध्यानस्थ थे। उस समय उस नगर पर अन्य राजा ने आक्रमण कर दिया। उनके कानों में जब इस आक्रमण के समाचार पहुँचे तो उनका राजत्व जाग उठा और वे प्रतिहिंसा और प्रतिकार की भावधारा में बहने लगे। उसी समय भगवान महावीर से राजा श्रेणिक ने प्रश्न किया कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि इस समय काल करें तो कहाँ उत्पन्न होंगे। भगवान ने उत्तर दिया कि वे इस समय काल करें तो सातवीं नरक में उत्पन्न होंगे। थोड़ी देर पश्चात् ही मुनि प्रसन्नचन्द्र ने अपना मुकुट संभालने के लिए सिर पर हाथ रखा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि वे तो मुण्डित हैं और मुनि बन गए हैं। युद्ध की भावना उनके लिए अब उचित नहीं है। भावधारा एकदम बदली। संक्लेश के स्थान पर विशुद्धि के भावों का आरोहण हुआ। वे अब बाह्य शत्रुओं से नहीं अन्तर में विद्यमान कषाय रूपी शत्रुओं से युद्ध करने लगे। इधर प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की निर्मलता बढ़ रही थी और उधर श्रेणिक राजा ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि मुनि प्रसन्नचन्द्र यदि इस समय काल करें तो कहाँ उत्पन्न होंगे। भगवान ने उत्तर दिया कि उन्हें केवलज्ञान हो गया है।
यह उदाहरण इस बात को सिद्ध करता है कि व्यक्ति अपना पुरुषार्थ करने में स्वतंत्र है तथा केवली 'जो होता है' उसे जानते हैं । सर्वज्ञता का यह स्वरूप स्वीकार किया जाए तो नियतिवाद का प्रवेश नहीं हो पाता।
अनियत भावों की संगति कर्म सिद्धान्त से भी नहीं बैठती। यदि सभी भाव अनियत है तो फिर शुभाशुभ कृत्यों का शुभाशुभ फलों से अनिवार्य संबंध भी नहीं होगा। अनियतता का अर्थ कारणता या हेतु का अभाव भी नहीं होता । कारणता के प्रत्यय को अस्वीकार करने पर सारा कर्मसिद्धान्त ही ढह जाएगा। कर्मसिद्धान्त नैतिक
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