Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नियतिवाद ३१३ नियति उत्पद्यमान पदार्थों से भिन्न नहीं है। अपितु भेद बुद्धि से उत्पन्न होने वाले पदार्थों में भी नियति की अभिन्नता रहती है। क्रिया और क्रियाफल रूप सभी नियतियों में अभेद होता है। एक ही नियति से द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से विभिन्न स्वरूप प्रकट होते हैं। अपेक्षा से वह द्रव्य-नियति, क्षेत्र-नियति, कालनियति और भाव-नियति से जानी जा सकती है। नियति एक होकर भी भिन्न-भिन्न कार्यों को करने में समर्थ होती है तथा अनेक रूप होने पर कार्य और कारण से वह अभिन्न होती है।
नियति एक होकर भी अनेक है। ७. यदि कहीं उत्पत्ति आदि में अनियम देखा जाता है तब भी वहाँ नियति को
ही कारण मानना चाहिए। नियति से कार्य-कारण की अथवा साध्य-साधन की समस्त व्यवस्था बन जाती है।
नियति को स्वीकार करने पर कोई अभिमान शेष नहीं रह जाता। १०. नियम का अभाव होने में भी नियति ही कारण है। ११. पुरुष की व्यग्रता, अव्यग्रता आदि नियति से ही होती है।
सर्वज्ञ बंधन एवं मोक्ष की प्रक्रिया को भी नियति से ही स्वीकार करते हैं।द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद के निरसन में प्रमुख रूप से दो तर्क दिए गए हैंनियति के सर्वात्मक होने से सदैव सब वस्तुएँ सब आकार वाली हो
जायेंगी तथा उनमें पूर्व, पश्चात् और युगपत् का व्यवहार संभव नहीं होगा। ii) नियति को स्वीकार करने पर हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के
लिए आचार का उपदेश निरर्थक हो जाएगा।
हरिभद्रसूरि के शास्त्रवार्ता समुच्चय में नियतिवाद का प्रबल निरसन हुआ है। उनके टीकाकार यशोविजय ने भी यथाप्रसंग हरिभद्रसूरि के तर्को को व्याख्यायित किया है। दोनों के प्रमुख तर्क इस प्रकार हैं
१. नियति की एकरूपता असंभव है।
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