Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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1.
ईशा
३१८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ३१. (क) इत्थं पुरा केचन पूरणाद्या विश्वस्य मूलं नियतिं वदन्तः। उन्मूलयन्ति स्म मतं परेषां यादृच्छिकानां बहुयुक्तियोगैः।।
-अपरवाद, नियतिवाद अधिकरण, श्लोक ४ (ख) ओझा जी ने पूरणकश्यप को नियतिवादी के रूप में प्रस्तुत किया है,
जबकि त्रिपिटक में पूरणकश्यप को अक्रियावादी बताया गया है। नियतिवाद का प्रचारक मंखलि गोशालक है, ऐसा बौद्ध और जैन ग्रन्थों से प्रमाणित होता है। वस्तुतः 'अक्रियावाद' और 'नियतिवाद' दोनों में सिद्धान्ततः विशेष भेद नहीं है। यही कारण है कि कुछ समय बाद पूरण कश्यप के अनुयायी गोशालक के अनुयायियों में मिल गए थे। -
गणधरवाद, प्रस्तावना (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. १२५ ३२. ब्रह्मचतुष्पदी, विराट् परिच्छेद, सत्यान्तर्यामिरूपम् ३३. श्वेताश्वतरोपनिषद्, अध्याय १; श्लोक २ ३४. श्वेताश्वतरोपनिषद्, १.२ पर शांकर भाष्य
ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद्, पृ. ३७५ ३६. ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद्, पृ. ४७६ ३७. नैराश्येन कृतो यत्नः स्वजने प्रहृतं मया। दैवं पुरुषकारेण न चातिक्रान्तवानहम्।।
-हरिवंश पुराण, प्रथम खण्ड, संस्कृति संस्थान,
ख्वाजा कुतुब (वेदनगर) बरेली (उ.प्र.) पृ. २५७, २५४, २५६ ३८. हरिवंश पुराण ६१.७७ ३९. हरिवंश पुराण ६२.४४ ४०. हरिवंश पुराण ४३.६८
-विश्व संस्कृत सूक्ति कोश, भाग द्वितीय से उद्धृत क्रमशः पृ. २५४, २५४, २५६ वामनपुराण, सर्वभारतीय काशिराजन्यास, दुर्ग रामनगर, वाराणसी, सन् १९६८,
अध्याय ५१, श्लोक ४५, ४६ ४२. नारदीय महापुराण, पूर्व खण्ड, अध्याय ३७, श्लोक ४८ ४३. नारदीय महापुराण, उत्तर खण्ड, अध्याय २८, श्लोक ६५ ४४. नारदीय महापुराण, पूर्व खण्ड, अध्याय ३७, श्लोक ४७
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