Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद मुक्त होने की प्रक्रिया का वर्णन है। यह प्रक्रिया जीव के एक जन्म में पूर्ण न होकर कई जन्मों में पूर्ण होती है, अतः पुनर्जन्म की मान्यता भी कर्मसिद्धान्त का एक पक्ष है। पूर्वकृत कर्म का एक सुव्यवस्थित एवं विस्तृत रूप जैन दर्शन में प्रतिपादित हुआ है। यह कर्म-मीमांसा जैनागमों में ही नहीं, दार्शनिक साहित्य में भी सुस्पष्ट हुई है।
कर्म - सिद्धान्त का आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण और विपाक सूत्र में संक्षिप्त तथा स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में सुव्यवस्थित व बहुविस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। आगम के अतिरिक्त कम्मपयडि, पंचसंग्रह, कर्मविपाक, कर्मस्तव आदि महत्त्वपूर्ण कर्म विषयक ग्रन्थ हैं। कर्म - साहित्य में षट्खण्डागम, कसायपाहुडसुत्त, गोम्मटसार- कर्मकाण्ड आदि दिगम्बर ग्रन्थों का भी महनीय स्थान है।
विशेषावश्यक भाष्य में शंका-समाधान के अन्तर्गत कर्म - सिद्धान्त विस्तृत रूप में निरूपित हुआ है । वहाँ गणधरों के संशय को दूर करते हुए भगवान महावीर ने कर्म को अदृष्ट, मूर्त, परिणामी, विचित्र और अनादिकाल से जीव के साथ सम्बद्ध बतलाया है।
जैनाचार्यों ने कर्म - सिद्धान्त को शुभाशुभ कर्म के विपाक की व्यवस्था के लिए आवश्यक समझा। ईश्वरवाद, कूटस्थ आत्मवाद, क्षणिकवाद आदि को जैन दार्शनिक स्वीकार नहीं करते, अतः उन्होंने कर्मसिद्धान्त को व्यापक धरातल पर स्थापित करने का प्रयास किया, जिसे इस अध्याय में समास में अग्रांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जाएगा- कर्म का अर्थ एवं स्वरूप, कर्मबंध : चार प्रकार, कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ, अष्टविध कर्म और भेद, कर्मबंध के कारण, कर्म - विपाक, अन्य तथ्य, कर्मफल संविभाग, पुनर्जन्म, कर्म - साहित्य आदि ।
जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, अतः कर्मसिद्धान्त का प्ररूपक दर्शन होने के बावजूद भी एकान्त कर्मवाद का यहाँ खण्डन प्राप्त होता है | सन्मतितर्क और उसकी टीका, द्वादशारनयचक्र तथा शास्त्रवार्ता समुच्चय में एकान्त कर्मवाद को असम्यक् बताया है।
यह कर्मवाद का सिद्धान्त मात्र जीव जगत् पर ही लागू होता है, अजीव पर नहीं। जबकि कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद अजीव पर भी समान रूप से घटित होते हैं। अतः जीवों में सम्पादित होने वाले कार्यों के प्रति ही कर्म कारण है। वेदों में कर्म-संदर्भ
वैदिक संहिता ग्रन्थों में 'कर्मवाद', 'कर्मगति' आदि शब्द प्राप्त नहीं होते हैं किन्तु वैदिक संहिताओं में कर्मवाद की धारणा अवश्य प्राप्त होती है। वैदिक संहिताओं
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