Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
३४२
जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
में शुभ-अशुभ कर्मों को व्यक्त करने वाले अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है। 'शुभस्पतिः' (अच्छे कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (अच्छे कर्मों के रक्षक), 'विचर्षणिः', 'विश्वचर्षणि:' ( शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा ), 'विश्वस्य कर्मणो धर्ता' (सभी कर्मों के आधार) आदि पदों का देवता के विशेषण के रूप में प्रयोग मिलता है। इन शब्दों के प्रयोग से शुभाशुभ कर्मों का महत्त्व प्रकट होता है । यज्ञादि कर्मों का वेदों में विशेषतया यजुर्वेद में अनेक प्रकार से विधान है। वेद में उल्लेख मिलता है कि स्वर्ग आदि साधक यज्ञों की समाप्ति होते ही उनका फल नहीं मिलता है, किन्तु मरने के बाद ही यजमान दूसरा शरीर धारण कर पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का भोग करता है। कई मंत्रों में यह स्पष्ट कहा गया है कि शुभ कर्मों के करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है। जीव अनेक बार इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार उत्पन्न होता है और मरण को प्राप्त होता है। "
अतः स्पष्ट है कि वेद में भी कर्म का फल मान्य है और एक जन्म में जो कर्म किया जाता है उसका फल दूसरे जन्म में अवश्य मिलता है तथा साधारणतया कर्म करने वाले जीव को ही अपने किए हुए उस कर्म के फल का भोग करना पड़ता है।
ऋग्वेद के मन्त्रों में पूर्वकृत कर्म का प्रतिपादन प्रत्यक्षतः तो प्राप्तव्य नहीं है, किन्तु उस पर महर्षि दयानन्द सरस्वती का विवेचन समुपलब्ध है, जिसमें कर्मवाद की व्याख्या मिलती है
न स स्वो दक्षो वरुण श्रुतिः सा सुरा मन्युर्विभीदको अचित्तिः । अस्ति ज्यायाकनीयस उपरे स्वप्नश्च नेदनृतस्य प्रयोता । । "
११
हे परमात्मन् (वरुण) ! स्व का स्वभाव, ध्रुति यानी मन्द कर्म, क्रोध, द्यूतादि व्यसन (विभीदकः ) तथा अज्ञान (अचित्तिः) ये सभी पापप्रवृत्ति में कारण हैं। जीव के हृदय में अन्तर्यामी पुरुष भी है जो शुभकर्मी को शुभकर्मों की ओर तथा अशुभकर्मी (मन्दकर्मी) को अशुभ कर्मों की ओर प्रवाहित करता है। स्वप्न का किया हुआ कर्म भी अनृत की ओर ले जाने वाला होता है।
दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र की व्याख्या में कहते हैं कि स्वभाव, मन्द कर्म, अज्ञान, क्रोध, ईश्वर का नियमन - ये पाँच जीव की सद्गति या दुर्गति में कारण होते हैं। यहाँ यह शंका होती है कि ऐसा करने से ईश्वर में वैषम्य तथा घृणा रूप दोष आते हैं अर्थात् ईश्वर ही अपनी इच्छा से किसी को नीचा और किसी को ऊँचा बनाता है। इसका उत्तर यह है कि ईश्वर पूर्वकृत कर्मों द्वारा फलप्रदाता है और उस फल से स्वयंसिद्ध ऊँच-नीचपन आ जाता है। जैसे किसी पुरुष को यहाँ नीच कर्म करने का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org