Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३१४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण २. नियति को स्वीकार करने पर उसकी सर्वहेतुता का लोप उपस्थित होता
है। सर्वहेतुता से आशय है सभी वस्तुओं का एक हेतु नियति। ३. अन्य भेदक के बिना नियति से वैचित्र्य की कल्पना अनुपयुक्त है। ४. नियति को स्वीकार करने पर शास्त्रोपदेश की व्यर्थता एवं शुभाशुभ क्रिया ____ फल के नियम का अभाव सिद्ध होता है।
सन्मति तर्क के टीकाकार अभयदेवसूरि ने नियतिवाद के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि सभी वस्तुओं के तथा तथा नियत रूप होने के कारण नियतिवादियों के मत में नियति ही एकमात्र कारण है। तीक्ष्ण शस्त्रादि से उपहत होकर भी मरण को प्राप्त न होने और शस्त्रादि के घात के बिना भी मृत्यु का भाजन बनने में नियति ही कारण है। उन्होंने नियतिवाद के निरसन में अनेक हेतु दिए हैं१. नियति को मानने पर शास्त्र की व्यर्थता एवं शुभाशुभ क्रिया फल का अभाव
सिद्ध होता है। २. ज्ञान को उत्पन्न करने वाली नियति अज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकती। ३. नियतिवाद को स्वीकार करने पर अनियम में कारण का अभाव है। ४. नियति नित्य भी नहीं हो सकती और अनित्य भी।। ५. स्वात्मनिक्रियाविरोध के कारण नियति स्वयं को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं
है। काल आदि अन्य कारणों का निषेध मानने पर निर्हेतुक नियति की उत्पत्ति मानना उचित नहीं है।
धर्मसंग्रहणि टीका में आचार्य मलयगिरि ने नियतिवाद के निरसन में दो हेतु दिए हैं१. नियति के अतिरिक्त कारण को अंगीकृत किये बिना जगत् की विचित्रता
संभव नहीं है। २. नियति से भिन्न भेदक कारणों को स्वीकार करने पर जगत् की विचित्रता में
अन्योन्याश्रय दोष आता है।
आधुनिक युग में बीसवीं शती के जैनाचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने नियति के संबंध में भाव-अभाव रूप, एक-अनेक रूप, नित्य-अनित्य रूप विकल्पों के माध्यम से नियतिवाद का निरसन करते हुए कुछ नये तर्क भी उपस्थित किये हैं। उन्होंने नियति में व्यतिरेक को असंभव सिद्ध किया है तथा नियति की एकरूपता, अनेकरूपता के साथ अभावरूपता का भी खण्डन किया है।
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