Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३१० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
प्रयोजककी नियतिः। २६९ अर्थात् पदार्थों में आवश्यक रूप से जो जिस प्रकार होना होता है उसकी प्रयोजककी नियति होती है।
पंचम शती ई. में सिद्धसेन दिवाकर प्रमुख जैन दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने नियति पर बत्तीस श्लोकों में द्वात्रिंशिका का निर्माण किया है। इस द्वात्रिंशिका में कर्तृत्ववाद का खण्डन करते हुए नियतिवाद को प्रस्तुत किया गया है। सिद्धसेन विरचित द्वात्रिंशिका एवं विजयलावण्यसूरिरचित टीका और मुनि भुवन चन्द्र रचित गुजराती व्याख्या के आधार पर नियतिवाद की निम्नांकित मान्यताएँ अभिव्यक्त
१. सर्वसत्त्वों के स्वभाव की नियतता है।
बुद्धि के धर्म आदि आठ अंग नियति से नियमित हैं। नियतिवाद के अनुसार जीव का स्वरूप चैतन्य है तथा क्रोध, मोह, लोभ
आदि ज्ञान लक्षण रूप स्वभाव जिसका है वह चैतन्य है। ४. नियतिवाद में पाँच इन्द्रियाँ और मन मान्य है। मन अहं के द्वारा नियति है
तथा प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् रूप से रहता है। ५. नरक, स्वर्ग आदि के दुःख-सुख नियत हैं।
ज्ञान भी नियत है तथा उच्चकुलीनों का स्वभाव भी नियत है। नियतिवाद के अनुसार आकाश, काल, सुख-दुःख, जीव-अजीव आदि तत्त्व मान्य हैं।
नियतिवादियों को प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण मान्य हैं। ९. शरीर आदि का कर्ता आत्मा नहीं है। १०. जगद्वैचित्र्य की सिद्धि नियतिवाद के बिना नहीं हो सकती। ११. नियति आदि से नियमित उपादान ही सत्कार्य में व्यापार करता है। यह
नियति ही कार्य की निमित्त होती है।
आठवीं शती में हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में नियतिवाद की चर्चा की है तथा उनके टीकाकार यशोविजय (१७वीं शती) ने अपनी तीक्ष्णमति से युक्तियों को व्यवस्थित किया है। इन दोनों दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत नियतिवाद में निम्नांकित विशेषताएँ प्रकट हुई हैं
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