Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १७३
ता कम्मा अविसिट्ठो पोग्गलरूवं जतो तंपि, अह तु अमुत्तो ण तओ सुहदुक्ख-निबंधण जहाऽऽगास।५८
अर्थात् स्वभाव भाव रूप में एकरूप है तो वह नित्य है या अनित्य। यदि नित्य है तो वह भाव का हेतु कैसे बन सकता है अर्थात् नहीं बन सकता। क्योंकि हेतु में परिवर्तन से ही कार्य होता है जबकि नित्य पदार्थ अपरिवर्तनशील होता है। स्वभाव एकरूप होकर अनित्य नहीं बन सकता,क्योंकि अनित्य कभी एक रूप नहीं होता,वह विभिन्न रूपों वाला होता है।
स्वभाव को भाव-एक रूप न मानकर भाव-अनेक रूप अर्थात् विचित्र मानें तब पुनः प्रश्न होता है कि वह मूर्त है या अमूर्त?
___ यदि वह मूर्त रूप है तो जैनदर्शन में मान्य कर्म से अविशिष्ट(अभिन्न) यानी पुद्गल रूप होगा। यदि अमूर्त है तो वह अनुग्रह और उपघात न करने से सुखदुःख का कारण नहीं हो सकता, जैसे कि आकाश अनुग्रह के अभाव में किसी के सुख-दुःख का कारण नहीं होता है।
यदि स्वभाववादी कहें कि सुख-दुःख का कारण जीव को मानने पर भी व्यभिचार आता है क्योंकि जीव भी आकाश की भाँति अमूर्त है। किन्तु स्वभाववादियों की ऐसी आशंका निर्मल है। क्योंकि जीव एकान्त रूप से अमूर्त नहीं है। अनादि कर्म संतति के परिणाम स्वरूप वह मूर्त है, मूर्त कर्म से युक्त होने के कारण वह उसी प्रकार सुख-दुःख का कारण बनता है जिस प्रकार कि अंकुर का हेतु बीज होता है।५९ अर्थात् जीव जब कर्म पुद्गलों से संयुक्त रहता है तभी तक उसे कर्म फल रूप सुखदुःख की प्राप्ति होती है। कर्मों से रहित होने पर शुद्ध सिद्ध जीव को निरुपम अव्याबाध दुःखरहित शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। सातावेदनीय आदि कर्मों से मिलने वाला सुख विनश्वर होता है।
कर्म का संयोग होने से जीव को एकान्ततः मूर्त नहीं माना जा सकता और चेतनास्वरूप निरुपम सुख सम्पन्न होने से वह अमूर्त जीव दुःखादि का निमित्त भी नहीं माना जा सकता। किन्तु कर्म से युक्त होने से वह मूर्त और परिणाम-रूप बनकर सुख-दुःख का कारण हो सकता है। इस प्रकार जीव का अमूर्त स्वरूप दुःख का कारण नहीं बनता, अपितु उसका कर्म रूप मूर्तत्व कारण बनता है।६०
___यदि स्वभाव अभाव रूप है तो वह एक रूप है या अनेक रूप(विचित्र)? तुच्छ (असत्) एक अभावस्वरूप स्वभाव से कार्यसिद्धि कैसे होगी? क्योंकि खरविषाण स्वरूप अभाव हेतु से किसी की उत्पत्ति नहीं होती। इस तरह अभाव से उत्पत्ति स्वीकार करना आकाशकुसुम के अस्तित्व को स्वीकार करना है।१६१
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