Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नियतिवाद २५५ अर्थात् यह मन जिस प्रकार की नियति की कल्पना करता है, वह नियति उसी प्रकार कभी नियत और कभी अनियत पदार्थों की कल्पना करती है। इस प्रकार से यह मन अपने संकल्पित पदार्थों की विभिन्न प्रकार की नियति की कल्पना करने वाला है। नियति को भी कभी अनियति बना देता है। यह जीव अपने पुरुषार्थ के कारण ही पुरुष कहलाता है। वह जैसा संकल्प करता है संसार में वैसा ही होता है अन्यथा प्रकार से नहीं ।
शैवदर्शन के ग्रन्थ परमार्थसार में नियति
काश्मीर शैवदर्शन में जगत् को छत्तीस तत्त्वों से संघटित माना है। ये सभी तत्त्व शिव की आत्माभिव्यक्ति से अतिरिक्त कुछ नहीं है। इन छत्तीस तत्त्वों में नियति का भी स्थान है। प्रकृति से उत्पन्न सुखादिरूप का भोक्ता पुरुष का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए परमार्थसार में बताया गया है कि यह पुरुष काल, कला, नियति, राग और अविद्या से बँधा हुआ है। " ये काल आदि सभी कंचुक कहलाते हैं। नियति कंचुक के कारण प्रत्येक प्राणी अपने पूर्व कर्मों के फल को भोगने के लिए बाध्य बना रहता है तथा इससे प्रमाता की कर्तृत्व और ज्ञातृत्व शक्ति और अधिक संकुचित हो जाती है। कार्यकारण भी इसी नियतितत्त्व का व्यापार है
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'नियतिः ममेदं कर्तव्यं नेदं कर्तव्यम् इति नियमनहेतुः
इस प्रकार नियत कारण से नियत कार्य की संभावना बनती है, जैसे वह्नि से धूम की और अश्वमेधादि यज्ञ से स्वर्गादिफल की प्राप्ति। उसी प्रकार नियत संकल्प के अनुसार किये गए कर्मसमूह से उदित पुण्य-पाप से आत्मा नियमित होती है, वही इस (पुरुष) का नियति तत्त्व है।
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जैन ग्रन्थों में नियतिवाद का निरूपण
नियतिवाद का उल्लेख जैनागमों में भी प्राप्त होता है। इसका नामोल्लेख प्रश्नव्याकरण में तथा स्वरूप सूत्रकृतांग सूत्र में समुपलब्ध होता है।
आगम एवं टीकाओं में चर्चित नियतिवाद
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सूत्रकृतांग में नियतिवाद का स्वरूप
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पौण्डरीक' नामक अध्ययन में मुमुक्षु जीवों को विपरीत आचार-विचार से निवृत्त होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने की प्रेरणा की गई है। एक पुष्करिणी के दृष्टान्त के माध्यम से तच्छरीरवादी, पंचभूतवादी, ईश्वरकारणवादी और नियतिवादी के मत का स्वरूप स्थापित किया गया है तथा यह
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