Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२७२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अन्यथाऽनियतत्वेन सर्वभाव: प्रसज्यते।
अन्योन्यात्मकतापत्तेः क्रियावैफल्यमेव च।।२३९ तात्पर्य यह है कि यदि कार्य को नियतिजन्य नहीं मानेंगे तो कार्य में नियतरूपता का कोई नियामक नहीं बनेगा। नियामकता के अभाव में उत्पन्न होने वाले कार्यों में सर्वात्मकता की आपत्ति आ जाएगी। सर्वात्मकता से अभिप्राय एक ही कारण से सभी कार्यों का होना है। कार्य के सर्वात्मक होने पर घट-पट आदि कार्यों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा अर्थात् उनमें अन्योन्यात्मकता हो जाएगी। इस प्रकार एक कार्य के उत्पन्न होने पर अन्य कार्य भी सिद्ध हो जायेंगे। अन्योन्यात्मकता की प्रसक्ति होने से क्रिया करना निरर्थक हो जाएगा। नियति को स्वीकार करने पर सर्वात्मकता की आपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि भिन्न-भिन्न कार्यों या भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का तत्ता (उनका वैसा होना) नियतिमूलक धर्म है। नियति तत्ता विशिष्ट ही व्यक्ति को उत्पन्न करती है। अतः इसमें सर्वात्मकता, अन्योन्यात्मकता आदि दोषों का अवकाश नहीं है। लोक तत्त्व निर्णय में नियतिवाद
आचार्य हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने अपने ग्रन्थ 'लोक तत्त्व निर्णय' में नियतिवाद का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए लिखा है
स्वच्छन्दतो न हि धनं न गुणो न विद्या, नाप्येव धर्माचरणं न सुखं न दुःखम्।
आरुह्य सारथिवशेन कृतांतयानं,
दैवं यतो नयति तेन पथा व्रजामि।। ४० धन, गुण, विद्या, धर्माचरण, सुख और दुःख स्वच्छन्दता से प्राप्त नहीं होते हैं। जैसे कृतांत (यमराज) के यान में आरूढ होने पर व्यक्ति सारथि के वशीभूत हो जाता है उसी प्रकार दैव जिस ओर ले जाता है जीव उसी मार्ग से जाता है। यशोविजयकृत नयोपदेश में नियतिवाद
सत्रहवीं शती में न्यायाचार्य यशोविजय ने नयोपदेश में नियतिवाद का नामोल्लेख मिथ्यात्व के ६ स्थान के अन्तर्गत किया है। वे ६ स्थान इस प्रकार हैं
१. नास्ति आत्मा- चार्वाक मत २. न नित्य: - क्षणिकवादी बौद्धमत
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