Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२९२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
३. नियति का नित्य और अनित्य होना असंभव- “न नियतिरेव कारणम् नियतेर्नित्यत्वे कारकत्वायोगात् अनित्यत्वेऽपि तदयोग एव'२०५ नियति ही कारण नहीं है क्योंकि नियति को नित्य मानने पर उसमें कारकत्व का अयोग होगा। नियति को अनित्य मानने पर भी उसमें कारकत्व का अयोग होगा। नित्यत्व में परिवर्तनशीलता का अभाव होता है। परिवर्तन की रिक्तता में कारकत्व का अयोग सिद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि नियति को अनित्य मानने पर उसमें कार्यता का प्रसंग होगा और कार्य किसी कारण से उत्पन्न होता है इसलिए नियति की उत्पत्ति में कारण का कथन करना होगा। उसमें नियति को ही कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि पुन: ऊपर उठाई हुई शंकाएँ लागू हो जायेंगी।२०६
४. स्वात्मनिक्रियाविरोध, अन्य कारणों का अभाव और निर्हेतुकता का प्रसंग-स्व (पदार्थ) से स्व की उत्पत्ति स्वात्मनिक्रिया कहलाती है। स्व कारण से स्व कार्य की उत्पत्ति जगत् में दृष्टिगत नहीं है, अतः इसे 'स्वात्मनिक्रियाविरोध' कहते हैं। स्वात्मनि-क्रियाविरोध के कारण नियति स्वयं को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। काल आदि को नियति का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि नियतिवाद में उनकी कारणता निषिद्ध है। निर्हेतुक भी उसकी (नियति) उत्पत्ति मानना उचित नहीं है, क्योंकि तब नियतरूपता की अनुपपत्ति होगी और जो स्वत: अनियत है, वह अन्यभाव में नियतता की कारण नहीं हो सकती। यथा- शशशंग आदि में वैसी नियतता उपलब्ध नहीं होती। अतः नियति भी प्रतिनियत भावों की उत्पत्ति में हेतु नहीं हैं।२०७ धर्मसंग्रहणि टीका में मलयगिरि द्वारा नियतिवाद का निरसन
____ हरिभद्रसूरि विरचित 'धर्मसंग्रहणि' एक विशिष्ट ग्रन्थ है, जिसमें कर्तृत्व, स्वभाव, अहिंसा आदि विविध विषयों का विशद निरूपण है। इस पर आचार्य मलयगिरि ने महत्त्वपूर्ण टीका की रचना की है। मलयगिरि ने नियतिवाद के निरसन में निम्नांकित तर्क दिए हैं
१. नियति के अतिरिक्त कारण को अंगीकृत किए बिना विचित्रता सम्भव नहीं- नियतिवादी कहते हैं कि नियति ही एक मात्र कारण है तथा वह एकरूप है। इसका निरसन करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि इस प्रकार एकरूप नियति से जन्य सभी कार्य एकरूप बन जायेंगे, क्योंकि कारणभेद से ही कार्यभेद उत्पन्न होता है। यदि जगत्-विचित्रता की सिद्धि के लिए कारणभूत नियति को विचित्र रूप मानते हैं तो अन्य की उपस्थिति के बिना ऐसा संभव नहीं है।२०८
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