Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नियतिवाद २९७ अन्तः कोटाकोटि सागर हो जाती है तब वह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। यह कर्मस्थिति संबंधी काललब्धि है । २२५
३. जो जीव भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । यह भव की अपेक्षा से काललब्धि है । २२६
महापुराण में कहा गया है- 'अनादि काल से चला आया कोई जीव काल आदि लब्धियों का निमित्त पाकर तीनों करण रूप परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । २२७ उदाहरणार्थ- प्रीतिंकर और प्रीतिदेव नामक दो मुनि वज्रजंघ के पास आकर कहते हैं- हे आर्य ! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण करने का यह समय है२२८ (ऐसा उन्होंने अवधिज्ञान से जान लिया), क्योंकि काललब्धि के बिना इस जीव को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती । २२९
मोक्ष में काललब्धि की हेतुता
मोक्षगामी जीव द्रव्य से वज्रऋषभनाराच संहनन शरीर, क्षेत्र से पन्द्रहकर्मभूमिज, काल से चतुर्थ आरा, भव से मनुष्य पर्याय तथा भाव से विशुद्ध परिणाम युक्त होता है तथा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्य लब्धि रूप चार लब्धियों को प्राप्त करता है । इन चारों लब्धियों के होने पर भव्य जीव अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को करता है, इन तीनों करणों के होने का नाम करण लब्धि है। प्रत्येक करण का काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के अनन्तर जीव योग्य समय आने पर अर्थात् काललब्धि प्राप्त होने पर कर्मों को नष्ट करके मुक्त हो जाता है। २३०
कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों पर जयसेनाचार्य रचित तात्पर्यवृत्ति टीका में इस बात का समर्थन निम्नांकित उद्धरणों से प्राप्त होता है
१. 'अत्रातीतानन्तकाले ये केचन
सिद्धसुखभाजनं
जाता,
भाविका... विशिष्ट - सिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव २३१ अर्थात् अतीत अनन्त काल में जो कोई भी सिद्धसुख के भाजन हुए हैं या भाविकाल में होंगे, वे सब काललब्धि के वश से ही हुए हैं।
२. 'कालादिलब्धिवशाद् भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग लभते १३२ अर्थात् कालादि लब्धि के वश से भेदाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं।
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