Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
फिर मृत्पिण्ड से घट कैसे होगा, क्योंकि मृत्पिण्ड में परमार्थ से घट के प्रागभाव का अभाव है। जिस प्रकार प्रागभाव के बिना भी मृत्पिण्ड से घट हो जाता है तो फिर सूत्रपिंडादि से घट क्यों नहीं हो जाता? क्योंकि जैसा मृत्पिण्ड में घट के प्रागभाव का अभाव है, वैसा ही सूत्रपिंडादि में भी घट के प्रागभाव का अभाव है। वैसे ही मृत्पिण्ड से खरशंग क्यों उत्पन्न नहीं हो जाता?
इस प्रकार इन सभी तर्क और हेतुओं से नियतिवाद का मत स्थिर नहीं
होता है।
कालब्धि और नियति
वह
जैनदर्शन में मान्य काललब्धि से नियति का कथंचित् साम्य प्रतीत होता है। नियति को परिभाषित करते हुए जिनेन्द्रवर्णी कहते हैं- 'जो कार्य या पर्याय जिस निमित्त के द्वारा जिस द्रव्य में जिस क्षेत्र व काल में जिस प्रकार से होना होता है, कार्य उसी निमित्त के द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व काल में उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप चतुष्टय से समुदित कार्यव्यवस्था को 'नियति' कहते हैं। काल की अपेक्षा से नियति को काललब्धि भी कहा जा सकता है। ' २२१ भाव यह है कि जिस कार्य के लिए जो समय नियत है, उसका उसी काल में होना, अन्य काल में न होना 'काललब्धि' या 'कालनियति' है। वह नियति का ही एक रूप है। काललब्धि एक बहिरंग कारण है- 'देशनाकाललब्ध्यादिबाह्यकारणसंपदि सम्यक्त्व और मोक्ष सभी काललब्धि की अपेक्षा रखते हैं। यही नहीं स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में पदार्थ की सभी पर्यायों में भी काललब्धि को कारण स्वीकार किया गया है। काललब्धि के प्रभाव का संक्षेप में विवेचन प्रस्तुत है -
• R२२
कालब्धि के अभाव में सम्यक्त्व का अभाव
अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि जीव का काललब्धि के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । २२३ जीव की संसार- स्थिति, कर्म- स्थिति और भव- स्थिति के आधार पर काललब्धि को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
१. कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्द्धपुद्गलपरावर्तन नामक काल के शेष रहने पर ही सम्यक्त्व प्राप्त करता है। यह संसार स्थिति संबंधी काललब्धि है। २२४
२. जब जीव के बंधने वाले (बध्यमान) कर्मों की स्थिति (आयु के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति) अन्तः कोटाकोटि सागर होती हैं और विशुद्ध परिणामों द्वारा सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम
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