Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२६२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
नित्यानन्तरमव्यक्तिसुख-दुःखाभिजातयः।
स्वभावः सर्वसत्त्वानां पयः क्षीरांकुरादिवत्।।४
इन नित्य आदि स्वभावों को आचार्य विजयलावण्यसूरि ने इस श्लोक पर टीका करते हुए विस्तार से निरूपित किया है। नित्य पद से सभी पदार्थों के नित्यत्व का ग्रहण किया गया है। यह नित्यता सर्वदा नियति के बल से होती है। एक के बाद होने वाला दूसरा कार्य या भाव अनन्तर है। यथा- वह्नि के अनन्तर धूम आदि। नियति के कारण ही सत्त्व को यह स्वभाव प्राप्त होता है। व्यक्ति या व्यक्त से तात्पर्य अभिव्यक्ति, आविर्भाव या उत्पत्ति है। अव्यक्ति यानी तिरोभाव या नाश है। अव्यक्ति पद से उत्पत्ति और नाश को सत्त्वों का स्वभाव कहा है। ये दोनों स्वभाव नियति के माहात्म्य से होते हैं। नियति के बल से ही प्रतिनियत देश काल में जीवों को सुख और दुःख प्राप्त होता है। सुख साता का और दुःख असाता का अनुभव है। अभिजाति से अभिप्राय उच्च कुल और नीच कुल दोनों से है। उच्च कुल और नीच कुल की प्राप्ति में भी नियति ही कारण बनती है।
इस प्रकार नित्य, अनन्तर, अव्यक्ति, सुख-दुःख, अभिजाति सभी नियतिकृत हैं। इससे धर्म, अधर्म, पुरुषकार, काल आदि अन्य किसी का प्रसंग नहीं है- 'स्वभावः सर्वसत्त्वानाम् स्वभाव इत्यानेन स्वयमेव जीवो नियत्येदृशो भवति न तु धर्माधर्मादिवशान्न वा पुरुषकारबलान्नापि कालमाहात्म्यादि बोध्यते। १६
उपर्युक्त विचार को पुष्ट करने के लिए पय, क्षीर, अंकुर का उदाहरण दिया गया है। पानी का स्वभाव शीतल है। पानी की बूंद स्वाति नक्षत्र में ही सीपी में गिरने पर मोती बनती है तथा मघा नक्षत्र में गिरने पर विष बनती है। क्षीर या दूध मधुर स्वभाव वाला होता है। यही दूध गाय, भैस और बकरी का होने पर अलग-अलग स्वभाव का होता है। अंकुर भी अपने-अपने बीज के स्वभाव के अनुसार परिणमित होकर वटवृक्ष में बदल जाते हैं।
पृथ्वी, भूजल, तेज आदि का परिणमन पुरुषकार के बिना अर्थात् स्वभाव से होता है। यह विश्व प्रसिद्ध है। इन स्वभावों की नियामिका नियति है।
इस तथ्य को प्रकाशित करते हुए टीकाकार कहते हैं'ईद्वशस्वभाव एव नाकस्मात् किन्तु अस्यानेन स्वभावेन भवितव्यमिति नियतिबलादेवेति स्वभावनियामिकाऽपि नियतिरेवेति नियतिवादव्यवस्थितिरिति। ८
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