Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२६८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
(ii) जगद्वैचित्र्य और धर्म-अधर्म का अप्रत्यक्ष रूप कर्तृत्ववाद को सिद्ध करने में असमर्थ- कर्तृत्ववाद कर्ता प्रधान है तथा उसमें कर्त्ता की इच्छा या प्रयत्न ही मुख्य आधार है। कर्तृत्ववाद के इस पक्ष का खण्डन करते हुए आचार्य विजयलावण्यसरि तर्क देते हैं कि कर्ता की इच्छानुसार जगत् में कार्य होता नहीं देखा जाता। जैसे-सभी जीव दुःख नहीं चाहते और न ही नीच कुल-गोत्र आदि की इच्छा करते हैं, अपितु वे तो अतिशय सुख और उच्च कुल की कामना करते हैं। किन्तु सभी जीवों को चाहने पर भी सुख व उच्च कुल नहीं मिलता। यदि पुरुष प्रयत्न या इच्छा ही सभी कार्यों का कारण मानी जाए तो सब सुखी हो जायेंगे, फिर सुख-दुःख रूप जगद्वैचित्र्य दृष्टिगोचर नहीं होगा। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं होने से आत्मवाद या कर्तृत्ववाद अनुचित सिद्ध होता है।१२३
कर्तृत्ववाद के खण्डन में एक अन्य तर्क देते हुए सिद्धसेन कहते हैं
___ धर्माधर्मों तदाऽन्योन्यनिरोधातिशयक्रियौ।
देशाद्यापेक्षौ च तयोः कथं कः कर्तृसंभवः।।२४ टीकाकार ने तर्क को समझाते हुए कहा- एक के.जीवन में धर्म का अतिशय होने से सुख में उत्कृष्टता और दूसरे जीव के धर्म की अतिशयता न होने से सुख में निकृष्टता देखी जाती है। इसी प्रकार अधर्म का अतिशय होने पर तथा कमी होने पर दुःख में भी क्रमशः उत्कृष्टता और कमी आती है। ये सभी देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हैं। धर्म-अधर्म दोनों आत्मवाद को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है; क्योंकि धर्म-अधर्म प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं किये जाते। अत: ये किसी कार्य के कर्ता नहीं हो सकते। इस प्रकार धर्म-अधर्म के स्वभाव का नियमन नियति से संभव है।१२५
(iii) उपादान-निमित्त कारण से कर्तृप्राधान्यवाद का घात- उपादान और निमित्त कारणों के साथ आत्मा को कर्ता स्वीकार करने पर स्वमत (आत्मवाद) स्वतः निरसन को प्राप्त हो जाता है। इन भावों से कलित सिद्धसेन के शब्द
यत्प्रवृत्त्योपमर्दैन वृत्तं सदसदात्मकम्।
तद्वेतरनिमित्तं वेत्युभयं पक्षघातकम्।।१२६ इन गूढ भावों को अपने विचारों में प्रतिबिम्बित करते हुए आचार्य विजयलावण्य सूरि कहते हैं- कार्य की निष्पत्ति के अनुकूल व्यापार ही कार्य का कारण है। ये एक-दूसरे से संवलित रहते हैं। परिदृश्यमान अर्थात् उपादान कारण और अन्य अतिरिक्त यानी निमित्त कारण, दोनों के होने पर कार्य होता है न कि कर्ता के व्यापार मात्र से। उपादान और निमित्त दोनों कारणों से कर्तृप्राधान्यवाद का घात होता
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