Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२६६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मनुष्यों को सुख-दुःख दोनों होते हैं। सुख-दुःख के विभाग से ये सुर हैं, ये नरक हैं और ये मनुष्य हैं, इस प्रकार का विभाजन होता है। ये सभी विभिन्न विमान में अलग-अलग स्थित हैं। सुख-दुःख का यह आधार भी नियति की व्याख्या करता
(ix) नियतिवाद द्वारा मान्य तत्त्व- सिद्धसेन ने नियतिवाद में मान्य तत्त्वों का नामोल्लेख निम्न श्लोक में किया है
व्योमावकाशो नान्येषां कालो द्रव्यं क्रियाविधिः।
सुखदुःखारजोधातु-जीवाजीव-नभांसि च।।१८
आचार्य विजयलावण्यसूरि ने अपनी टीका में इनका अर्थ स्पष्ट किया है'व्योमावकाश:-व्योम्न आकाशस्यावकाशः स्वभावः अर्थात् अवकाश आकाश का स्वभाव है। काल-क्षण-लव-विपल-पल-दण्ड-मुहूर्तादिभेदैर्व्यवत्रियमाणः अर्थात् क्षण, लव, विपल, पल, दण्ड आदि भेद से व्यवहार किया जाता है, वह काल है। द्रव्यं- 'न तु सूर्यपरिस्पन्दादिः तस्य कालोपाधित्वेन कालत्वोपचारात्' अर्थात् कालद्रव्य नहीं है, किन्तु सूर्य परिस्पन्दन आदि से (रात-दिन) काल की उपाधि को उपचार से द्रव्य कहा गया है। क्रिया-नोत्क्षेपणावक्षेपणादिरूपा अर्थात् उत्क्षेपण
और अवक्षेपण- ये क्रियाएँ नहीं है। विधि-नापि धात्वर्थसामान्यं नापि प्रतिषेधः किन्तु यजेत् कुर्यादिव्यादिलिंगादिप्रतिपाद्यः प्रवर्तको विधिः अर्थात् धात्वर्थ सामान्य नहीं है, ऐसा निषेध नहीं किया जा रहा है किन्तु विधि रूप में यज्ञ करना आदि लिङ् आदि का प्रतिपादन प्रवर्तक विधि है। सुखदुःखरजःधातुः- सुखदुःख-रजोलक्षणो धातुः न तु कफ-पित्त-वारवात्मतया प्रसिद्धः अर्थात् सुखदुःख रजो धातु कफ-पित्त-वायु से युक्त नहीं है। जीवाजीव नभांसि च-उपयोगो लक्षणो जीवः, उपयोगरहितोऽजीवः, नभः गगनम्। तस्याजीवत्वेऽपि पृथक्कथनं जीवाजीवोभयाधारत्वस्वभावप्रतिपत्त्यर्थम् अर्थात् जीव उपयोग लक्षण वाला है, उपयोगरहित अजीव है। नभ गगन है। इन तीनों का पृथक् कथन किया गया है। नभ यद्यपि अजीव के अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी वह जीव एवं अजीव दोनों का आधार रूप स्वभाव वाला है, यह बोध कराने के लिए ही उसका पृथक् कथन किया गया है।
(x) अनुमान का स्वरूप नियतिवाद में- नियतिवादी कुल कितने प्रमाण मानते हैं, यह तो ज्ञात नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण मानने का उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने प्रत्यक्ष प्रमाण तो सभी को मान्य
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