Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
(iv) इन्द्रिय और मन का स्वरूप- सिद्धसेन दिवाकर नियतिवाद में मान्य इन्द्रिय और मन के स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार करते हैं
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स्पर्शनादिमनो ऽन्तानि भूतसामान्यजातिमान् ।
मनोऽहन्नियतं द्रव्यं परिणाम्यनुमूर्ति च ।। १५
आचार्य विजयलावण्यसूरि उपर्युक्त श्लोक का तात्पर्य समझाते हुए कहते हैं कि स्पर्श, चक्षु, रसन, घ्राण, श्रवण और मन- ये इन्द्रियाँ हैं तथा भूतसामान्य जाति से युक्त अर्थात् भूतत्वलक्षणजाति से युक्त पृथ्वी आदि विषय हैं। मन अहं के द्वारा नियत द्रव्य है। मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार के अभिमान से मन परिणमनशील है तथा प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् रूप से रहता है। १०६ स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषय क्रमशः स्पर्श, रूप, रस, गंध शब्द हैं। इनमें परस्पर विरुद्ध धर्म होने से वैलक्षण्य है।'
१०७
मुनि भुवनचन्द्र जी का मत है कि नियतिवादी के अनुसार आत्मा का कार्य मन करता है। १०८
(v) स्वर्ग-नरकादि नियति से - नरक,
गतियों की चर्चा करते हुए सिद्धसेन कहते हैं
तियंच, मनुष्य
यथा दुःखादिनिरयस्तिर्यक्षु पुरुषोत्तमाः ।
रक्तायामजनायां तु सुखजा न गुणोत्तराः ।। १०९
टीकाकार विजय लावण्यसूरि अपनी टीका में इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अतिशय यातना से युक्त, एक-दूसरे को मारने से उत्पन्न दुःख, अतिदुःख, कामक्रोध-मोह से अतिरेक वाले नरक के स्थान नियति से ही उस प्रकार के होते हैं, उससे अन्यथाभूत नहीं होते । तिर्यक् योनि में भी दुःख नियति के कारण है। विशिष्ट अतिशयशाली पुरुष भी इस भूमि पर नियति से होते हैं। देवलोक सुखसम्पन्न है, यह भी नियति का ही माहात्म्य है। ११०
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और देव इन चारों
(vi) ज्ञान में भी नियति- ज्ञान नियति के बल से ही होता है, इस तथ्य सिद्धसेन दिवाकर ने रवि-पंकज के उदाहरण से स्पष्ट किया है
न चोपदेशो बुद्धेः स्याद् रवि-पंकजयोगवत् ।
१११
तत्त्वानि प्रतिबुद्ध्यन्ते तेभ्यः प्रत्यभिजातयः । ।
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