Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नियतिवाद २५३ विशुद्धि का भी कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। न आत्मा कुछ करती है और न पर कुछ करता है, न पुरुषकार है, न बल है, न वीर्य है, न पुरुषस्ताम है, न पुरुषपराक्रम है। सभी सत्त्व, सभी प्राण, सभी भूत और सभी जीव अवश हैं, अबल हैं, अवीर्य हैं। नियति के संग के भाव से परिणत होकर ६ प्रकार की अभिजातियों में सुख-दुःख का संवेदन करते हैं।६६
नियतिवादी कहते हैं- "मैं इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य के द्वारा अपरिपक्व कर्म का परिपाक करूँगा तथा परिपक्व कर्म का अन्त करूँगा। ऐसा मानना उचित नहीं है।"६७ . योगवासिष्ठ में नियति एवं पुरुषार्थ की सापेक्षता
प्रायः 'दैव' और 'नियति' एकार्थक माने गए हैं, किन्तु योगवासिष्ठ में इन दोनों का पृथक् स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। 'नियति' कार्य एवं पदार्थों के स्वभाव की निश्चितता या भवितव्यता के रूप में तथा 'दैव' पूर्वकृत कर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। 'नियति' को परिभाषित करते हुए योगवासिष्ठ में कहा गया है
'आदिसर्गे हि नियतिर्भाववैचित्र्यमक्षयम्।
अनेनेत्थं सदा भाव्यमिति संपद्यते परम्।।६८ अर्थात् सृष्टि के आदि में ही पदार्थ वैचित्र्य के रूप में नियति का सिद्धान्त आ जाता है। ऐसा होने पर ऐसा होना चाहिए- यह अक्षय नियम नियति है। कार्यकारण रूपी इस नियति का चारों ओर साम्राज्य है। यही कारण है कि जगत् में सारे व्यवहार नियमित रूप से होते दिखाई पड़ते हैं और प्रत्येक वस्तु का स्वभाव निश्चित जान पड़ता है। इस जगत् के संचालन हेतु निमित्त वस्तुओं का स्वभाव निश्चित है, जिससे प्रत्येक वस्तु अपने निश्चित स्वभाव के अनुकूल कार्य करती रहती है।
नियति की अटलता और निश्चितता को कोई भी खण्डित करने में समर्थ नहीं है, वह अखण्ड है। जैसाकि कहा है
अवश्यंभवितव्यैषात्विदमित्थमिति स्थितिः। न शक्यते लयितुमपि रुदादिबुद्धिभिः।। सर्वज्ञोऽपि बहुज्ञोऽपि माधवोऽपि हरोऽपि च। अन्यथा नियतिं कर्तुं न शक्तः कश्चिदेव हि।।६९
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