Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
स्वभाववाद १७१ 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि वेद वचनों के द्वारा स्वभाव देहादि का कर्ता माना जाता है, क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि सभी हेतुओं के निराकरण से अर्थात् अहेतु से पदार्थों का जन्म होता है और उसमें 'स्व' भी कारण नहीं होता है। जैसे- कमल, कण्टक, मयूरचन्द्रक आदि में पायी जाने वाली विचित्रता। जो कादाचित्क होता है वह निर्हेतुक होता है, अत: बाह्य पदार्थ कण्टकतीक्ष्णता आदि ही नहीं, आत्मिक या भीतर के सुख-दुःखादि कार्य भी कादाचित्क होने से निर्हेतुक होते हैं। निरसन- गौतम द्वारा 'स्वभाववाद' के विषय में इस प्रकार कहे जाने पर भगवान महावीर फरमाते हैं- 'अहव सहावं मन्नसि विण्णाणघणाइवेयवुत्ताओ। तह बहुदोसं गोयम! ताणं च पयाणमयमत्थो।' अर्थात् हे गौतम! जैसे तुम स्वभाव की कारणता मानते हो, वैसा स्वीकार करने पर बहुत दोष आता है। क्योंकि जो देहादि का कर्ता 'स्वभाव' स्वीकार किया गया है, वास्तव में उसका क्या अर्थ है -
१. क्या वस्तु विशेष स्वभाव है? २. क्या अकारणता या निष्कारणता स्वभाव है? ३. क्या वस्तु का धर्म स्वभाव है?
१. वस्तु विशेष रूप स्वभाव अनुपलब्ध- वस्तु विशेष रूप स्वभाव आकाश-कुसुम की भाँति अनुपलब्ध है। इसके अलावा वस्तु विशेष रूप स्वभाव का साधक कोई प्रमाण ही उपलब्ध नहीं होता। यदि ग्राहक प्रमाण के द्वारा स्वभाव का अस्तित्व माना जाए, तो उसी न्याय से कर्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है। इसी तरह स्वभाववाद के सन्दर्भ में एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि स्वभाव मूर्त है या अमूर्त? यदि स्वभाव को मूर्त माना जाए, तो नामान्तर से कर्म की ही स्वीकृति होगी। यदि अमूर्त माना जाए तो वह किसी का कर्ता नहीं होगा, क्योंकि वह आकाशादि के समान उपकरण रहित है।५१
२. निष्कारणता भी स्वभाव नहीं- निष्कारणता को स्वभाव मानने का अर्थ होगा- शरीर आदि सभी बाह्य पदार्थों का अकारण उत्पन्न होना। कारण कि अभाव की सर्वत्र समानता होने से सभी वस्तुओं के युगपद् उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। यदि शरीर आदि को अहेतुक माना जाए, तो उन्हें आकस्मिक मानना होगा। जो आकस्मिक होता है, वह अभ्र (बादल) आदि के विकार के समान सादि व प्रतिनियत संस्थान वाला नहीं होता। जबकि शरीर सादि नियताकार होता है। आकस्मिक नहीं होने पर उसमें कर्म हेतु है। शरीर घटादि के समान नियत आकार वाला और उपकरण युक्त कर्ता से निर्वृत्त (निर्मित) है।५२ यदि भवोत्पत्ति आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org