Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१७.
स्वभाववाद २१३ १४. इत्थं पुरा केऽपि पराशराद्या निर्धारयन्तः परिणामवादम्। प्रत्यब्रुवन् पौरुषवादमेषां मते स्वभावोऽनतिलंङ्घनीयः।।
-अपरवाद, परिणामवादाधिकरण, श्लोक ५ आधुनिक विज्ञान में हंसों के सफेद, तोतों के हरे और मयूरों के विचित्र वर्ण का कारण उनके गुणसूत्र को माना जाता है। इन गुणसूत्रों में विभिन्न वर्गों को उत्पन्न करने की शक्ति किस कारण से होती है, तो स्वभाव के अतिरिक्त कोई कारण प्रत्युत्तर के रूप में नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार अंतिम कारण के रूप में आधुनिक वैज्ञानिकों को भी स्वभाववाद के आगे नतमस्तक होना पड़ेगा।
अपरवाद, यदृच्छावाद-अधिकरण, श्लोक १ का अंश १६. अपरवाद, यदृच्छावाद-अधिकरण, श्लोक ३-५
अपरवाद, नियतिवाद अधिकरण, श्लोक २ १८. अपरवाद, नियतिवाद अधिकरण, श्लोक १ १९. रूपेण सर्वे नियतेन भावा भवन्ति तस्मान्नियतिं पृथग्वत्। मन्यामहे कारणमीश्वरो वाऽणुर्वेतरे वा नियतेर्वशे स्युः।।
-अपरवाद, नियतिवाद, अधिकरण, श्लोक ३ २०. इत्थं पुरा केचन पूरणाद्या विश्वस्य मूलं नियतिं वदन्तः। उन्मूलयन्ति स्म मतं परेषां यादृच्छिकानां बहुयुक्तियौगैः।।
-अपरवाद, नियतिवाद अधिकरण, श्लोक ४ २१. अपरवाद, प्रकृतिवाद-अधिकरण, श्लोक ७ २२. अपरवाद, प्रकृतिवाद अधिकरण, श्लोक ८ २३. श्रीमद् भागवत् पुराण, द्वितीय स्कन्ध, अध्याय ५, श्लोक २२ का अंश उद्धत
अपरवाद, परिणामघाद अधिकरण २४. श्वेताश्वतरोपनिषद्, प्रथम अध्याय, मंत्र २
श्वेताश्वतरोपनिषद्, षष्ठ अध्याय, मंत्र १ २६. द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च। वासुदेवात्परो ब्रह्मन्न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः।।
-श्रीमद् भागवत् महापुराण, द्वितीय स्कन्ध, अध्याय ५, श्लोक १४ २७. हरिवंश पुराण- द्वितीय खण्ड, संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, बरेली, पृ.
१८९, श्लोक १३, १६
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