Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२३८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्राप्तव्यो नियतिनलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः।।
जो पदार्थ नियति के बल के आश्रय से प्राप्तव्य होता है वह शुभ या अशुभ पदार्थ मनुष्यों (जीव-मात्र) को अवश्य प्राप्त होता है। प्राणियों के द्वारा महान् प्रयत्न करने पर भी अभाव्य कभी नहीं होता है तथा भावी का नाश नहीं होता है। इन्हीं भावों का प्रतिरूप श्लोक महाभारत में भी उपलब्ध है
यथा यथास्य प्राप्तव्यं प्राप्नोत्टोव तथा तथा।
भवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथा तथा।।' पुरुष को जो वस्तु जिस प्रकार मिलने वाली होती है, वह उसी प्रकार मिल ही जाती है। जिसकी जैसी होनहार होती है, वह वैसी होती ही है। हितोपदेश में भी दैव का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए इन्हीं भावों से संपृक्त श्लोक उपलब्ध होता है।
वेद में स्पष्ट रूप से नियतिवाद विषयक कोई भी सूक्त या मन्त्र समुपलब्ध नहीं है। किन्तु पं. मधुसूदन ओझा ने नासदीय सूक्त के आधार पर दश वादों का उत्थापन किया है, उसमें अपरवाद के अन्तर्गत नियतिवाद का निरूपण किया है। उपनिषद् वाङ्मय में नियतिवाद का स्पष्ट उल्लेख सम्प्राप्त होता है। श्वेताश्वतरोपनिषद में वैदिक कालीन मत के रूप में तथा महोपनिषद् व भावोपनिषद् में नियामक तत्त्व के रूप में नियति का प्रतिपादन हुआ है।"
'दुर्वारा हि भवितव्यता', 'दुर्लङ्घ्यं भवितव्यता उक्तियों से हरिवंश पुराण में भी नियतिवाद की पुष्टि स्पष्ट दिखाई देती है। वर्तमान परिस्थिति में भवितव्य की प्रबलता कारण है-ऐसा मन्तव्य वामन पुराण में प्रस्तुत है। नारदीय पुराण में समस्त जगत् को दैव अर्थात नियति के अधीन कहा है- 'दैवाधीनमिदं सर्व जगत्स्थावर जंगमम्"
उत्तम कुल में जन्म, पुरुषार्थ, आरोग्य, सौन्दर्य, सौभाग्य, उपभोग, अप्रिय वस्तुओं के साथ संयोग, अत्यन्त प्रिय वस्तुओं का वियोग, अर्थ, अनर्थ, सुख और दुःख इन सबकी प्राप्ति प्रारब्ध के विधान के अनुसार होती है। यहाँ तक कि प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ और हानि में भी प्रारब्ध ही प्रवृत्त होता है- इन विचारों से कलित श्लोक महाभारत में प्राप्त होते हैं।'
आचार्य मम्मट द्वारा रचित काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने असाधारण धर्म के नियामक तत्त्व, कर्म के अपर पर्याय, अदृष्ट, नियामक शक्ति और दैव के रूप में
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