Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १७५ है तो वह स्वभाव कार्यगत स्वभाव नहीं हो सकता, क्योंकि अभावभूत वस्तु का स्वभाव नहीं होता है। इस प्रकार कार्यगत स्वभाव कार्य का हेतु नहीं बन सकता।२६६
यदि वह स्वभाव कारणगत है तो वह किसको इष्ट नहीं है, अर्थात् सभी को इष्ट है। तात्पर्य यह है कि हेतुता कारण में ही हो सकती है, कार्य में नहीं। कारणगत स्वभाव कारण से भिन्न नहीं अपितु अभिन्न है। अतः जगत् की सभी वस्तुएँ सकारण होती हैं, ऐसा निश्चय होता है।१६७
अत: कहा जा सकता है- लोक में अनुभव होने वाले सुख-दुःख की विचित्रता यदि निर्हेतुक है तो वह सदैव ही होनी चाहिए या सदैव ही नहीं होनी चाहिए। क्योंकि निर्हेतुक वस्तु अन्य की अपेक्षा नहीं रखती है। अतः सुख-दुःख को नित्य सत् या नित्य असत् होना चाहिए।१६८ आचार्य कहते हैं- 'निच्च भावाभावप्पसंगतो सकडमो हेतु १६९ अर्थात् सुख-दुःख की नित्य भाव-अभाव की प्रसंगता से और कादाचित्कता से आपका मत खण्डित होता है। अतः सुख-दुःख सहेतुक है। हेतु के रूप में स्वकृत कर्म को छोड़कर किसी कारण की संभावना नहीं बनती। शास्त्रवार्ता-समुच्चय में स्वभाववाद का खण्डन
महान् दार्शनिक जैनाचार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७० ईस्वी शती) ने कालवाद, नियतिवाद आदि एकान्तवादों के निरसन की भाँति अनेक युक्तियों से 'स्वभाववाद' का भी खण्डन प्रस्तुत किया है
बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित के 'तत्त्वसंग्रह' और सिद्धसेनसूरि के 'सन्मतितर्क' पर अभयदेव की टीका में स्वभाववाद के सम्बन्ध में दो मत प्रतिपादित हुए हैं- प्रथम स्वभावहेतुवादी और द्वितीय निर्हेतुक स्वभाववादी। स्वभावहेतुवादी स्वभाव को कार्योत्पत्ति में हेतु मानते हैं, जबकि निर्हेतुकवादियों के अनुसार समस्त भाव बिना हेतु के उत्पन्न होते हैं। इन दोनों मतों का खण्डन 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' में एवं उसकी टीका ‘स्याद्वादकल्पलता' में समुपलब्ध होता है। १. हरिभद्रसूरि द्वारा स्वभावहेतुवाद का निरसन i. स्वभाव को ही कार्य की उत्पत्ति में हेतु मानना उचित नहीं है। 'स्वभाव' का
अर्थ है- “स्वो भावः' अर्थात् स्व से अभिन्न भाव। यह भाव प्रत्यक्षतः स्वसत्ता रूप ही होता है। स्वसत्ता रूप होने से उसमें भेदक तत्त्व का अभाव है। भेदक का अभाव होने से जगत् में विचित्रता सम्भव नहीं हो
सकेगी।१७०
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