Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद २०३ स्वभाववाद के चार रूप प्रस्तुत किये हैं- १. परिणामवाद २. यदृच्छावाद ३. नियतिवाद ४. पौरुषी-प्रकृतिवाद। पंडित ओझा के इस वर्गीकरण में स्वभाववाद को परिणामवाद कहना तो युक्तिसंगत प्रतीत होता है किन्तु इसे यदृच्छावाद, नियतिवाद एवं पौरुषी प्रकृतिवाद मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि भारतीय दर्शन में यदृच्छावाद, नियतिवाद एवं प्रकृतिवाद पृथक् मान्यताओं के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में जगदुत्पत्ति के संबंध में विभिन्न कारणों की चर्चा के प्रसंग से स्वभाव को भी कारण के रूप में प्रतिपादित किया गया है। आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में स्वभाव को पदार्थ की प्रतिनियत शक्ति के रूप में परिभाषित किया है। हरिवंश पुराण में जगत् को स्वभावकृत प्रतिपादित करते हुए कहा है
स्वभावाज्जायते सर्व स्वभावाच्च ते तथाऽभवत्।।
अहंकारः स्वभावाच्च तथा सर्वमिदं जगत्।।२८६ भगवत् गीता में मानव स्वभाव के आधार पर वर्ण भेद का प्रतिपादन भी स्वभाव की कारणता को स्पष्ट करता है। वहाँ सभी कार्यों में स्वभाव की प्रवृत्ति स्वीकार की गई है
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्यसृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।२८७ महाभारत में पंच भूतों का एक और अनेक होना स्वभाव से अंगीकार किया गया है। स्वभावं भूतचिन्तका:" कहकर महाभारत में भूत चिन्तकों को स्वभाववादी के रूप में प्रकाशित किया गया है। स्वभाववाद का महाभारत में पोषण भी है और निरसन भी। ‘स्वभावादेव तत्सर्व इति में निश्चिता मति: २८९ सदृश पंक्तियाँ स्वभाववाद को पुष्ट करती हैं। वहाँ निम्नांकित श्लोक स्वभाववाद का निरसन करता है
ये चैनं पक्षमाश्रित्य निवर्तन्त्यल्पमेधसः।
स्वभावं कारणं ज्ञात्वा न श्रेयः प्राप्नुवन्ति ते।।२९०
स्वभाववाद का विकास संस्कृत साहित्य की बुद्धचरित, बृहत्संहिता, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि कृतियों में भी दृष्टिगोचर होता है।
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