Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १९७
का स्वभाव न हुआ होता तो लोक की कोई भी शक्ति उसे परिवर्तन कराने में समर्थ न हुई होती। जलने योग्य पदार्थ को ही जलाया जा सकता है, अभ्रक को नहीं, मरणधर्मा जीव की ही मृत्यु हो सकती है, अचेतन की नहीं।
1-दौड़,
वस्तुगत
विश्व में दीखने वाली क्रियाएँ, विभिन्नताएँ, भागपरिवर्तनशील स्वभाव से ही संभव है, अन्यथा लोक में कोई भी कार्य देखने में नहीं आता और लोक कूटस्थ हो जाता। अतः कहा जा सकता है कि जगत् में परिवर्तन या कार्य वस्तुगत परिणमन (स्वभाव) के कारण होते हैं।
स्वभाव के भेद
मुख्य रूप से द्रव्य और पर्याय के आधार पर स्वभाव के विभिन्न भेदों की चर्चा यहाँ की गई है। इसमें द्रव्यों के सामान्य और विशेष स्वभाव को लेकर भी विषय प्रतिपादित हुआ है।
द्रव्य के आधार पर
षड्द्रव्यों के आधार पर स्वभाव को सामान्य तथा विशेष रूप में दो प्रकार का कहा जा सकता है। जो स्वभाव सभी द्रव्यों का है, वह सामान्य स्वभाव है और जो प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है वह विशेष स्वभाव है। द्रव्यों के सामान्य स्वभाव ११ प्रकार के और विशेष १० प्रकार के कहे गये हैं।
(i) सामान्य स्वभाव - सभी द्रव्यों में स्थित सामान्य स्वभाव के एकादश भेद नयचक्र के निम्न श्लोक में प्रस्तुत है -
'अस्थि त्ति णत्थि णिच्चं अणिच्चमेगं अोग भेदिदरं । भव्वाभवं परमं सामण्णं सव्वदव्वाणं ।। २६०
अस्ति - नास्ति, नित्य- अनित्य, एक-अनेक, भेद - अभेद, भव्य - अभव्य, और परमभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव हैं, जो सब द्रव्यों में पाए जाते हैं ।
· अस्ति स्वभाव - 'स्वभावलाभात् अच्युतत्वात् अस्तिस्वभावः अर्थात् जिस द्रव्य का जो अपना स्वतः सिद्ध स्वभाव प्राप्त है, उससे कदापि च्युत न होना सदा सत् स्वरूप रहना, इसी का नाम अस्तित्व स्वभाव है। सब द्रव्य अपने स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र- स्वकाल-स्वभाव चतुष्टय से सदा सर्वकाल अस्ति स्वभाव अर्थात् अस्ति रूप है।
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