Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
नास्ति स्वभाव - 'परस्वरूपेण अभावात् नास्ति स्वभाव: २६२ प्रत्येक द्रव्य परद्रव्य-परक्षेत्र-परकाल-परभाव रूप से सदा सर्वकाल नास्ति स्वरूप है। अर्थात् द्रव्य परचतुष्टयरूप कदापि नहीं होता। वस्तु में परद्रव्यादि चतुष्टय का सदा सर्वकाल अभाव है, नास्ति रूप है। नित्य स्वभाव- 'निज निज नाना पर्यायेषु तदेव इदं इति दव्यस्य नित्यस्वभावः २६३ अपनी-अपनी अनन्त पर्यायों में सदा सर्वकाल अचलरूप रहना ध्रुव स्वभाव या नित्य स्वभाव है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य नित्य है। अनित्य स्वभाव - 'तस्यापि अनेक पर्यायपरिणमितत्त्वात् अनित्यः स्वभाव: २६४ उसी द्रव्य का अपनी अनन्त पर्यायों में नियतक्रमबद्ध रूप से प्रतिसमय परिणमन होने के कारण द्रव्य अनित्य स्वभाव है। एक स्वभाव - ‘स्वभावानां एकाधारत्वात् एकस्वभावः २६५ द्रव्य के अनेक स्वभाव धर्मों का आधारभूत एक द्रव्य होने के कारण द्रव्य एक स्वभाव है। द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य एक है। अनेक स्वभाव - 'एकस्य अनेकस्वभावोपलंभात् अनेक स्वभावः २६६ एक ही द्रव्य का अन्वय सम्बन्ध रखने वाले अनेक गुण-पर्याय स्वभाव होने के कारण द्रव्य अनेक स्वभाव है। भेद स्वभाव-गुण-गुणी आदि संज्ञादिभेदात् भेदस्वभावः २६७ अर्थात् गुण-गुणी में संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि भेद अपेक्षा से द्रव्य भेद स्वभाव है। अभेद स्वभाव - 'गुण-गुणी आदि अभेदस्वभावत्वात् अभेदस्वभाव: २६८ गुणों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है। गुण और गुणी इनमें यद्यपि संज्ञाभेद है, तथापि वस्तुभेद नहीं है। इसलिए वस्तु अखंड एक अभेद स्वभाव है। भव्य स्वभाव- 'भाविकाले स्वस्वभावभवनात् भव्यस्वभावः २६९ प्रत्येक द्रव्य भाविकाल में होने योग्य होने से भव्य है। भवितुं योग्यं भयत्वं तेनविशिष्टत्वात् भव्यः, भाविकाल में होने योग्य है। इसलिए भव्य है।
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