Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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. २०० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
एक परमाणु जितने क्षेत्र को रोकता है, वह प्रदेश है। इस माप के अनुसार जिस द्रव्य की एक प्रदेश जैसी अवगाहना होती है तो वह एक प्रदेशित्व स्वभाव वाला होता है। अनेक प्रदेश स्वभाव - 'अणेक्कं च दव्वदो गेयं २८ द्रव्य का अनेक प्रदेशित्व भाव बहुप्रदेशित्व स्वभाव है। जिस द्रव्य की अवगाहना बहुप्रदेशी हो, वह अनेक प्रदेश स्वभाव वाला होता है। विभाव स्वभाव - 'जहजादो रूवंतरगहणं जो सो हु विभावो २७९ यथाजात स्वाभाविक रूप से रूपान्तर होने को विभाव कहते हैं। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के संयोग से अन्य भाव रूप परिणमन करने का नाम विभाव है। इस प्रकार के स्वभाव को विभाव स्वभाव कहते हैं। शुद्ध स्वभाव - 'कम्मक्खयदो सुद्धो८० कमों के क्षय से प्रकट हुए स्वभाव को शुद्ध स्वभाव कहते हैं। अशुद्ध स्वभाव - 'मिस्सो पुण होइ इयरजो भावो ८१ कर्मों के
संयोग से उत्पन्न हुए भाव को अशुद्ध स्वभाव कहते हैं । • उपचरित स्वभाव - 'जं वियदव्वसहावं उवयारं तं पि ववहारं २८२
व्यवहार नय से जो द्रव्य का स्वभाव होता है, उसे उपचरित स्वभाव कहा जाता है। इसके अन्तर्गत एक द्रव्य के स्वभाव का अन्य द्रव्य में
उपचार होता है।
स्वभाव-विभाव पर्याय के आधार पर जैन दर्शन में मान्य स्वभाव का स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है। पर्याय के आधार पर स्वभाव के भेद
द्रव्य तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं।२८३ जैसे - जीव के ज्ञान गुण का परिणमन घटज्ञान, पटज्ञान आदि रूप से होता है या मन्द्र-तीव्र होता है। यह पर्याय अर्थ तथा व्यंजन के भेद से दो प्रकार की है। स्वभाव और विभाव रूप से अर्थ तथा व्यंजन पर्याय के दो भेद किए गए हैं।८४ अर्थपर्याय तो छह द्रव्यों में होती है। वह सूक्ष्म
और क्षण-क्षण में उत्पन्न होती और नष्ट होती है तथा व्यंजन पर्याय स्थूल होती है, वचन के द्वारा उसका कथन किया जा सकता है, वह नश्वर होते हुए भी स्थिर होती है। जो पर्याय पर-निरपेक्ष होती हैं, वे स्वभाव पर्याय हैं। स्वभाव का प्रसंग होने से यहाँ स्वभाव अर्थ- पर्याय और स्वभाव व्यंजन-पर्याय का वर्णन किया जा रहा है।
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