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________________ १९८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नास्ति स्वभाव - 'परस्वरूपेण अभावात् नास्ति स्वभाव: २६२ प्रत्येक द्रव्य परद्रव्य-परक्षेत्र-परकाल-परभाव रूप से सदा सर्वकाल नास्ति स्वरूप है। अर्थात् द्रव्य परचतुष्टयरूप कदापि नहीं होता। वस्तु में परद्रव्यादि चतुष्टय का सदा सर्वकाल अभाव है, नास्ति रूप है। नित्य स्वभाव- 'निज निज नाना पर्यायेषु तदेव इदं इति दव्यस्य नित्यस्वभावः २६३ अपनी-अपनी अनन्त पर्यायों में सदा सर्वकाल अचलरूप रहना ध्रुव स्वभाव या नित्य स्वभाव है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य नित्य है। अनित्य स्वभाव - 'तस्यापि अनेक पर्यायपरिणमितत्त्वात् अनित्यः स्वभाव: २६४ उसी द्रव्य का अपनी अनन्त पर्यायों में नियतक्रमबद्ध रूप से प्रतिसमय परिणमन होने के कारण द्रव्य अनित्य स्वभाव है। एक स्वभाव - ‘स्वभावानां एकाधारत्वात् एकस्वभावः २६५ द्रव्य के अनेक स्वभाव धर्मों का आधारभूत एक द्रव्य होने के कारण द्रव्य एक स्वभाव है। द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य एक है। अनेक स्वभाव - 'एकस्य अनेकस्वभावोपलंभात् अनेक स्वभावः २६६ एक ही द्रव्य का अन्वय सम्बन्ध रखने वाले अनेक गुण-पर्याय स्वभाव होने के कारण द्रव्य अनेक स्वभाव है। भेद स्वभाव-गुण-गुणी आदि संज्ञादिभेदात् भेदस्वभावः २६७ अर्थात् गुण-गुणी में संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि भेद अपेक्षा से द्रव्य भेद स्वभाव है। अभेद स्वभाव - 'गुण-गुणी आदि अभेदस्वभावत्वात् अभेदस्वभाव: २६८ गुणों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है। गुण और गुणी इनमें यद्यपि संज्ञाभेद है, तथापि वस्तुभेद नहीं है। इसलिए वस्तु अखंड एक अभेद स्वभाव है। भव्य स्वभाव- 'भाविकाले स्वस्वभावभवनात् भव्यस्वभावः २६९ प्रत्येक द्रव्य भाविकाल में होने योग्य होने से भव्य है। भवितुं योग्यं भयत्वं तेनविशिष्टत्वात् भव्यः, भाविकाल में होने योग्य है। इसलिए भव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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