Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१९४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
और नित्य रहने वाला है, इसलिए पूर्वोक्त वस्तु के स्वरूप को स्वभाव माना जाता है।२४६ ‘इस स्वभाव से अतिरिक्त द्रव्य नहीं हो सकता' इन शब्दों से कुन्दकुन्दाचार्य २४७ प्रवचनसार में स्वभाव के स्वरूप को स्थापित करते हैं। जिनेन्द्र भगवान ने यथार्थतः द्रव्य को स्वभाव से सिद्ध और सत् कहा है। २४८
अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में 'परिणाम स्वभावमेव ९४९ से स्वभाव को परिभाषित किया है। उन्होंने स्वभाव की कारणता का एक विशेष स्वरूप स्थापित करते हुए कहा है- 'न खलु द्रव्यैर्दव्यान्तराणामारम्भः सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् १५० द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि सर्वद्रव्य स्वभावसिद्ध हैं। तात्पर्य यह है कि स्वभाव ही द्रव्योत्पत्ति में कारण है तथा अन्य द्रव्य कारणों की उसमें अपेक्षा नहीं होती। क्योंकि षड्द्रव्य अनादिनिधन हैं और अनादिनिधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता।
२५१
'जगत् के प्राणियों को दुःख स्वाभाविक है' ऐसा मन्तव्य आचार्य ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में अभिव्यक्त किया है। इन्हीं भावों का प्रतिबिम्ब प्रवचनसार का निम्न श्लोक है
'जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं ।
२५२
जई तं ण हि संभावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥।
जिन्हें विषयों में रति है, उन्हें दुःख स्वाभाविक जानना चाहिए क्योंकि यदि वह दुःख स्वभाव से न होता तो विषयार्थ में व्यापार नहीं होता। जिनकी इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण दुःख नहीं है, किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति होती है। जैसे - हाथी हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की ओर, मछली बंसी में फँसे हुए मांस के स्वाद की ओर, भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल - गंध की ओर, पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और हिरण शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं। इन सभी कार्यों में इन्द्रियों के विषयों के प्रति स्वाभाविक रुचि ही कारण है। यदि इनका दुःख स्वाभाविक न होता तो जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिए उपचार करता, जिसका दाह ज्वर उतर गया है वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता तथा जिसकी आँखों का दुःख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण आंजता, जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई देता और जिसका घाव भर जाता वह फिर लेप करता दिखाई देता । अतः जिनकी इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक ही है। २५३
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