Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १८७ स्वभाववादियों की भाँति कुछ दार्शनिकों की मान्यता रही है कि पदार्थ स्व कारण से ही उत्पन्न होते है- 'स्वत एव भावा जायन्ते इति' किन्तु इस मन्तव्य का स्वभाववादी निराकरण करते हुए कहते हैं-'स्वक्रियाया विरोधात् इत्यादिना निरस्ताः'। स्वयं पदार्थ में क्रिया का सम्भव नहीं हो पाना 'स्वक्रियाविरोध' कहलाता है। जैसे- चाकू द्वारा स्वयं को नहीं काटना। यह स्वक्रियाविरोध ही पदार्थ की स्व कारणता खण्डित करता है। पूर्वोक्त मान्यता में परभाव (पदार्थ) त्याग कर स्वभाव (पदार्थ) की कारणता इष्ट है जबकि स्वभाववादी को पर के साथ स्व कारण भी इष्ट नहीं है। इसी भेद को स्थापित करते हुए स्वभाववादी पूर्व मान्यता का निरसन करते हैं।१५ ।।
(२) प्राकृतिक विचित्रताओं में कारण को खोजते हुए स्वभाववादियों का मन्तव्य है
'राजीवकेसरादीनां वैचित्र्यं कः करोति हि ।
मयूरचन्द्रकादिर्वा विचित्र: केन निर्मितः ।।१६
कमल, केसर आदि में विचित्रता कौन करता है और मयूरचन्द्रक के विभिन्न रंगों को कौन चित्रित करता है।
कमलशील ने तत्त्वसंग्रह पंजिका में इन प्रश्नों को और विस्तृत रूप देकर इस प्रकार निरूपित किया है- नाल, दल, कर्णिका, काँटों का तैक्ष्ण्य किसके द्वारा सम्पादित होता है। हमारे मतानुसार तो ईश्वर भी अनुपलब्ध है। ऐसी स्थिति में स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं हो सकता।
(३) स्वभाववादी से शंका की जाती है- बाह्य पदार्थों के कारणों की अनुपलब्धि होने से अहेतुत्व सिद्ध होता है, किन्तु आध्यात्मिक (आत्मिक) सुखदुःख आदि में अहेतुता कैसे होगी? इसके प्रत्युत्तर में स्वभाववादी का निम्न श्लोक है -
'यथैव कण्टकादीनां तैयादिकमहेतुकम् ।
कादाचित्कतया तद्वदुःखादीनामहेतुता ।। २९७ अर्थात् जैसे काँटों की तीक्ष्णता अहेतुक है, उसी के समान कादाचित्क होने से दुःखादि अहेतुक हैं।
दुःखादि आध्यात्मिक कार्य की प्रत्यक्षतः निर्हेतुकता सिद्ध नहीं होती है, किन्तु अनुमान से उसकी निर्हेतुकता सिद्ध होती है। जैसे- जो जो कादाचित्क होता है,
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