Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१०० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
कालवाद का उपस्थापन- गर्भ का जन्म उचित काल के अभाव में नहीं होता है। जो यह कहते हैं कि गर्भ के जन्म में गर्भ की परिणत अवस्था ही कारण है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अपरिणत गर्भ का जन्म भी देखा जाता है । शीत, उष्ण, वर्षा आदि उपाधिभूत काल भी उचित काल में ही होते हैं क्योंकि इन उपाधिभूत कालों के प्रति भी काल ही कारण है। अतः शीतसमय में ग्रीष्म एवं वर्षाकाल या ग्रीष्मकाल में शीत एवं वर्षाकाल नहीं होता है । १२२
स्वर्ग या नरक भी समय आने पर ही प्राप्त होता है। यह आदि कर्म सम्पन्न हो जाने पर भी स्वर्ग उसी समय नहीं होता, किन्तु योग्यकाल उपस्थित होने पर ही होता है। इसी प्रकार घट आदि कार्य भी दण्ड आदि कारण के रहते हुए भी योग्यकाल के उपस्थित हुए बिना नहीं उत्पन्न होते। इसलिए यह सत्य है कि काल ही सबका कारण है, 'काल से भिन्न पदार्थ भी कार्य का कारण होता है' यह असत्य है क्योंकि काल से अन्य पदार्थ अन्यथासिद्ध हो जाते हैं। १२३ जैसे स्थाली और अग्नि का विलक्षण संयोग आदि का सन्निधान होने पर भी मूंग की दाल का परिपाक उस समय तक नहीं होता जब तक उसका कारणभूत काल उपस्थित नहीं हो जाता। १२४ काल कार्य के प्रति अवश्यक्ऌप्त नियत पूर्ववर्ती है, इसलिए एकमात्र वही कार्य का कारण है। कारण कहे जाने वाले अन्य पदार्थ अवश्यक्ऌप्त - नियतपूर्ववर्ती काल से भिन्न होने से अन्यथासिद्ध हैं।
अतः
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काल को कार्य का यदि असाधारण कारण न माना जाएगा तो गर्भ आदि सभी कार्यों की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जाएगी, क्योंकि अन्यहेतुवादी की दृष्टि में गर्भ के हेतु माता-पिता आदि हैं। अतः उनका सन्निधान होने पर तत्काल ही गर्भ के जन्म की आपत्ति होगी। १२६
कोई शंका करता है कि केवल काल ही यदि सब कार्यों का कारण हो तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय सभी कार्यों की उत्पत्ति होगी। क्योंकि एक कार्य को उत्पन्न करने के लिए जो काल सन्निहित होगा वही सब कार्यों का कारण है। अतः उसके सन्निधान से जब एक कार्य उत्पन्न होगा तो अन्य कार्यों के प्रति उस काल से भिन्न किसी कारण के अपेक्षणीय न होने से उसी समय सभी कार्यों की उत्पत्ति अनिवार्य हो जाएगी।'
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इस आपत्ति के परिहारार्थ नव्य कालवादी तार्किक तत्तत् कार्य के प्रति तत्तत् उपाधिविशिष्ट काल को कारण मानते हैं। वे कालवाद की रक्षा करते हुए कहते हैं कि क्षण स्वयं अतिरिक्त काल है। क्षण को स्वतंत्र काल मान लेने पर कार्य-कारण भाव मानना संभव हो जाता है। वर्तमान क्षण में रहने वाले कार्य में पूर्व क्षण कारण
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