Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १४९ न्यायकुसुमांजलि में आकस्मिकवाद के अन्तर्गत स्वभाववाद
उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि ग्रन्थ में कारण-कार्य के संदर्भ में 'आकस्मिकवाद' के अन्तर्गत स्वभाववाद की चर्चा की है। आचार्य उदयन ने 'अकस्मात्' शब्द के पाँच अर्थों का निरूपण करते हुए उनकी समालोचना की है तथा कार्य की उत्पत्ति के लिए नियत देशवृत्ति वाले कारण की स्थापना की है।
'अकस्मात' के पाँच अर्थ इस प्रकार किए गए हैं- १. कार्यों का कोई भी कारण नहीं है। २. कार्यों की उत्पत्ति ही नहीं होती। ३. कार्य स्वयं अपने द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। ४. गगनकुसुमादि की तरह किसी भी अनुपाख्य पदार्थ से सभी कार्यों की उत्पत्ति होती है। ५. स्वभाव से ही सभी कार्य उत्पन्न होते हैं।
'अकस्मात्' शब्द के इन पाँचों अर्थों का आचार्य उदयन ने कारण-कार्य सिद्धान्त की दृष्टि से खण्डन किया है। खण्डन संबंधी तर्क-वितर्क यहाँ प्रस्तुत है
पूर्वपक्ष- सभी कार्य अकारण यानी बिना कारण अकस्मात् भी हो जाते हैं। अत: कार्यों का कोई भी कारण नहीं है।
उत्तर पक्ष- नैयायिक के अनुसार यह मत असंगत है। क्योंकि ऐसा मानने पर कारण से निरपेक्ष कार्योत्पत्ति माननी होगी। कारण से निरपेक्ष का तात्पर्य है कार्य कारण की अपेक्षा नहीं रखता है और वह बिना किसी कारण के उत्पन्न हो जाता है। इससे प्रत्येक समय में सभी कार्यों की उत्पत्ति होती रहेगी क्योंकि 'कारणों का अभाव' जो कि कार्योत्पत्ति का हेतु है, वह हर समय उपलब्ध है। कार्योत्पत्ति और कार्य की अनुत्पत्ति दोनों में कारण की सत्ता नहीं मानना अनुभव विरुद्ध है।
पूर्वपक्ष- 'अकस्मात्' से तात्पर्य कार्यों का उत्पन्न नहीं होना है।
उत्तरपक्ष- 'अकस्मादेव भवति' वाक्य से कार्यों की उत्पत्ति को अस्वीकार करने वाला पक्ष हम नैयायिकों को स्वीकार्य नहीं है। कारण कि यह मान लेने पर एकत्रित कारणों के पूर्व तथा पश्चात् दोनों ही काल में कार्य संभव नहीं हो पाएगा। ऐसी स्थिति में कारणों के विद्यमान होने पर भी कार्य नहीं होगा और अविद्यमान होने पर भी कार्य नहीं होगा। उक्त दोनों परिस्थितियों में अन्तर नहीं होने से 'अकस्मात्' का यह अर्थ उपयुक्त नहीं है।
पूर्वपक्ष- कार्य अन्य कारणों की अपेक्षा न रखते हुए 'स्व' से ही उत्पन्न होता है।
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