Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण की उत्पत्ति समस्त स्व-पर कारणों से निरपेक्ष होती है। वे उसकी उत्पत्ति में पर को ही नहीं 'स्व' को भी कारण नहीं मानते हैं। तत्त्वसंग्रहकार ने स्वभाववाद को स्पष्ट करते हुए निम्नांकित दो श्लोक दिए है
राजीवकेसरादीनां वैचित्र्यं कः करोति हि। मयूरचन्द्रकादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः।। यथैव कण्टकादीनां तैक्ष्ण्यादिकमहेतुकम्।
कादाचित्कतया तद्वदुःखादीनामहेतुता।। कमल के पराग, नाल, दल(पंखुड़ियाँ), कर्णिका आदि के आकार, वर्ण इत्यादि विभिन्नता को कौन उत्पन्न करता है अर्थात् कोई नहीं। स्वभाव ही इसमें एकमात्र कारण है। मयूर का चन्दोवा (चन्द्रक) आदि का भी निर्माण किसी के द्वारा नहीं किया गया। स्वभाव से ही उसकी उपलब्धि होती है। यही नहीं काँटे आदि की तीक्ष्णता निर्हेतुक अर्थात् स्वाभाविक है। इसी प्रकार दुःख-सुख आदि भी अहेतुक हैं। स्वभाव से ही इनका जन्म होता है।
जिसके होने पर ही नियम से किसी का होना तथा न होने पर न होना ही कारण-कार्य सिद्धान्त का आधार माना जाता है, किन्तु स्वभाववादियों का कथन है कि इस कारण-कार्य सिद्धान्त में दोष पाया जाता है। उदाहरण के लिए स्पर्श के होने पर ही रूप का चक्षुर्विज्ञान होता है, नहीं होने पर नहीं होता, (रूपी पदार्थ में रूप के साथ रस, गन्ध एवं स्पर्श सदैव रहते हैं) किन्तु स्पर्श को चक्षुर्विज्ञान का कारण नहीं माना जा सकता। इसलिए कार्य-कारण भाव का उपर्युक्त लक्षण (यस्य भावाभावयोर्यस्य- भावाभावी नियमेन भवतः, तत्तस्य कारणम् ) व्यभिचारी है। अत: यह बात सिद्ध है कि पदार्थों की उत्पत्ति अन्य समस्त हेतुओं से निरपेक्ष है'सर्वहेतु-निराशंसं भावानां जन्मेति
बौद्ध दर्शन द्वारा प्रतिपादित कार्य-कारण सिद्धान्त 'प्रतीत्यसमुत्पाद' के अन्तर्गत पूर्व घट का सम्पूर्ण विनाश एवं उत्तरघट की उत्पत्ति में स्वभाव की हेतुता को स्वीकार किया गया है। अमुक कारण से अमुक कार्य की उत्पत्ति होती है, इसमें हेतु का स्वभाव ही मुख्य होता है- 'तस्साहव्वं किंकय-मह हेतुसहावकतमेव अर्थात् प्रतिपक्षी द्वारा प्रश्न पूछने पर कि विवक्षित कारण में उसी कार्य को उत्पन्न करने वाला कौन है तो उत्तर में बौद्ध हेतु के स्वभाव को इसका कर्ता बतलाते हैं। जैसे मिट्टी ही घड़ा उत्पन्न करने के स्वभाव से युक्त है न कि पट और तंतु ही पट को उत्पन्न करने के स्वभाव वाला है न कि घट। इस वस्तु-व्यवस्था के नियम में सभी प्रकार से वस्तु का स्वभाव ही प्रमाणित होता है।
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