Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
स्वभाववाद १५७ कडु आदि का अपाक अदृष्ट के वैषम्य से है, यह कहना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि दृष्ट सभी कारणों का सन्निधान रहने पर भी अदृष्ट के अभाव में कार्य की अनुत्पत्ति नहीं देखी जाती। जैसे- दण्ड से बल के साथ चक्र को चलाने पर भी अदृष्टवश उसमें चलन का प्रतिबंध हो जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं देखा जाता है। इस प्रकार मूंग के पाक तथा कडुक अश्वमाष आदि के अपाक में और चक्र के गति तथा ठहरने में स्वभाव कारण न हो तो वह कामाचार के अतिरिक्त कुछ नहीं है।अत: कार्य के जन्म में कामाचार के
निवारणार्थ उन्हें स्वभावजन्य मानना ही न्यायसंगत है। ७. जो पदार्थ तत्स्वभाव से अर्थात् उस कार्य को पैदा करने के अनुकूल स्वभाव
से रहित हो, उससे कार्योत्पत्ति मानी जाए तो अतिप्रसंग दोष उत्पन्न हो जाता है। प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव होता है। उसके स्वभावानुसार ही वह कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होती है। यदि सभी वस्तुओं की कार्योत्पत्ति में समान कारणता मानी जाए तो मिट्टी से घट का उत्पन्न होना एवं पटादि का न होना अयुक्तियुक्त ठहरेगा- 'तुल्ये तत्र मृदः कुम्भो न पटादीत्ययुक्तिमत् २०१ शंका- यह दोष वहाँ उपस्थित होता है जहाँ तदुत्पत्ति का नियामक स्वभाव हो हमारे मतानुसार 'ननु नातत्स्वभावत्वं०२ उस पदार्थ में उस कार्य के जननानुकूल स्वभाव मानने की आवश्यकता नहीं है। समाधान- 'तज्जननप्रयोजकमुच्यते येनेयमापत्तिः संगच्छते १०३ अर्थात् तब कार्य की उत्पत्ति का प्रयोजक या नियामक क्या है? जिससे इस आपत्ति का निवारण हो जाए। शंका- उस कार्य के सभी कारणों का सन्निधान ही उस कार्य का प्रयोजक या जनक है। अश्वमाष नहीं सीझता (पकता) है, इसमें अश्वमाष की स्वरूप योग्यता ही नहीं है, ऐसा मानने में क्या आपत्ति है? अत: स्वभाव को स्वीकार न करने पर भी कार्य होने में कोई आपत्ति या दोष नहीं है।०४
समाधान- 'अन्तरंगत्वात् स्वभाव एव कार्य हेतुः, न तु बाह्यकारणम्' स्वभाव अंतरंग होता है और कारणान्तर का सहयोग बहिरंग होता है। अत: मिट्टी को अपने स्वभाव से ही घट का उत्पादक मानना उचित है, बहिरंग की सहायता से नहीं।०५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org