Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १५५ जो असत् है उसकी उत्पत्ति तीनों कालों में भी संभव नहीं है, ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में गधे के सींग। असत् जगत् की उत्पत्ति तीनों काल में नहीं होने से जगत् स्वाभाविक रूप से सत् या उत्पन्न है। ऐसा सिद्धान्त स्थापित होता है।
इस सिद्धान्त का प्रतिफल हुआ कि जगत् में जो-जो सत् पदार्थ हैं, वे सभी स्वाभाविक हैं। जगत् में असत् का अस्तित्व नहीं है, अतः सभी पदार्थ स्वभाव जन्य हैं। इस ग्रन्थ का एक अन्य श्लोक भी स्वभाववाद का समर्थन करता है
नदर्याः कंटकस्तीक्ष्ण ऋजुरेकश्च कुंचितः।
फलं च वर्तुलं तस्या, वद केन विनिर्मित।। बेर के वृक्ष का एक काँटा तीक्ष्ण व सीधा तो दूसरा वक्र होता है और उसका फल गोल होता है। ये विभिन्नताएँ कौन रचता है अर्थात् स्वभावज है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में स्वभाववाद का विस्तृत विवेचन
शास्त्रवार्ता समुच्चय में स्वभाववाद के अनेक पहलुओं पर विस्तार से सूक्ष्म चिन्तन सम्प्राप्त होता है। स्वभाववाद के पक्ष को प्रस्तुत करते हुए अनेक तर्क दिए गए हैं, यथा१. जीव के गर्भ से लेकर स्वर्गगमन तक के सभी कार्य स्वभाव से सम्पन्न होते
हैं और स्वभाव के नियमन से ही कार्य का कभी होना व न होना रूप कादाचित्कत्व संभव होता है। जिसे आचार्य हरिभद्रसूरि ने निम्न प्रकार से श्लोकबद्ध किया है
न स्वभावातिरेकेण गर्भनालशुभादिकम्।
यत्किंचिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल।। २. आकाश के एक स्थान में होने और एक स्थान में नहीं होने के प्रति स्वभाव
की नियामकता है। इसके समान ही घटादि कार्यों के कादाचित्कत्व के प्रति
भी स्वभाव के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं है।९२ ३. शंका- 'उत्पन्न होना' घट का स्वभाव है। स्वभाव वस्तु में सदैव रहता है,
इस नियम से घट के सदैव उत्पन्न होने की आपत्ति होगी।९३
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