Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १५३
प्रकृतं, न देवलोको वाऽस्ति पुण्यकर्मफलभूतः, नैवास्ति सिद्धिगमनं सिद्धेः सिद्धस्य चाभावात् अम्बापितरावपि न स्तः, उत्पत्तिमात्रनिबंधनत्वान्मातापितृत्वस्य न चोत्पत्तिमात्रनिबन्धनस्य मातापितृतया विशेषे युक्तः, यतः कुतोऽपि किंचिदुत्पात एव, यथा सचेतनात् सचेतनं यूकामत्कृणादि अचेतनं मूत्रपुरीषादि, अचेतनाच्च सचेतनं यथा काष्ठाद् घुणकीटादि अचेतनं चूर्णादि, तस्मात् जन्यजनकभावमात्रमर्थानामस्ति नान्योमातापितृपुत्रादिर्विशेष इति, तद्भावात्तद्भोगविनाशापमानादिषु न दोष इति भावो । " द्वारा स्वभाव की कारणता प्रस्तुत हुई है। इसमें स्वभाववादियों की मान्यता को प्रकट करते हुए कहा है कि समस्त प्राणियों का व्यवहार पूर्वकृत कर्मों से नहीं अपितु स्वभाव से संचालित होता है। वे अपने स्वभाव से ही शुभ या अशुभ कार्य करते हैं। नारक, तिर्यक् और मनुष्यों की योनियों में उत्पन्न होने रूप जो जगत् की विचित्रता है, वह भी स्वभावजनित ही है, कर्मजनित नहीं । काँटे का तीक्ष्ण होना, मयूर का विभिन्न वर्णों वाला होना, मुर्गे के विभिन्न रंगों का होना, यह सब स्वभाव से ही होता है।
जीवादि पदार्थो से स्वभाव भिन्न है। प्राणांतिपात आदि से उत्पन्न कर्म जीव से भिन्न नहीं है। कर्म को जीव स्वरूप मानने पर नारक आदि जीवों की विचित्रता निर्हेतुक हो जाएगी, किन्तु संसार में कुछ भी निर्हेतुक नहीं है। नैरयिक, तिर्यंच और मनुष्यों की उत्पत्ति पुण्य-पाप कर्मफल से नहीं होती । पुण्य कर्मफल से मिलने वाला देवलोक नहीं है। सिद्धि में गमन भी नहीं है, क्योंकि सिद्धि और सिद्ध का अभाव है। उत्पत्तिमात्र में कारण होने से माता-पिता का कोई वैशिष्ट्य नहीं है, क्योंकि किसी से कुछ भी उत्पन्न हो जाता है। जैसे - सचेतन से चेतन और अचेतन दोनों की उत्पत्ति देखी जाती है। जूं, लींक आदि की उत्पत्ति चेतन से चेतन और मल-मूत्र आदि चेतन से अचेतन की उत्पत्ति । अचेतन से चेतन की भी उत्पत्ति देखी जाती है, जैसे- लकड़ी से दीमक, कीट आदि । अचेतन से अचेतन की उत्पत्ति का उदाहरण- लकड़ी से बुरादा । माता-पिता, पुत्र आदि का कोई वैशिष्ट्य नहीं है। इसलिए कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव को पृथक् कारण मानना चाहिए।
इसके अतिरिक्त प्रश्नव्याकरण सूत्र पर ज्ञानविमलसूरिविरचित वृत्ति में भी स्वभाववाद पर चिन्तन हुआ है- 'केचित् स्वभावभावितं जगत् मन्यन्ते, स्वभावेनैव सर्वः संपाते शुष्ठिहरीतक्यादीनां तिक्तविरेकादयो गुणा स्वभावेनैव । रविरुष्णः शशी शीतः स्थिरोऽद्रिः पवनश्चलः । न श्मश्रुः स्त्रीमुखे हस्ततलेषु न कचोद्गमः । । भव्याऽभव्यादयो भावाः स्वभावेनैव जृम्भते, इति अर्थात् स्वभाववादी (कुछ) का मन्तव्य है कि स्वभाव से ही जगत् और सारे कार्य
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