Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१६४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१३. बंध स्वतः नित्य स्वभाव से
१५. बंध परत: नित्य स्वभाव से
१७. संवर स्वतः नित्य स्वभाव से
१९. संवर परत: नित्य स्वभाव से
२१. निर्जरा स्वतः नित्य स्वभाव से
२३. निर्जरा परत: नित्य स्वभाव से
२५. पुण्य स्वतः नित्य स्वभाव से
२७. पुण्य परत: नित्य स्वभाव से
२९. पाप स्वतः नित्य स्वभाव से
३१. पाप परत: नित्य स्वभाव से
३३. मोक्ष स्वतः नित्य स्वभाव से
३५. मोक्ष परतः नित्य स्वभाव से अक्रियावादी में स्वभाववाद के भेद
१४. बंध स्वतः अनित्य स्वभाव से
१६.
बंध परत: अनित्य स्वभाव से
१८.
संवर स्वतः अनित्य स्वभाव से
२०.
संवर परत: अनित्य स्वभाव से
२२.
निर्जरा स्वतः अनित्य स्वभाव से
२४.
निर्जरा परतः अनित्य स्वभाव से
२६.
२८.
३०.
३२.
३४.
३६.
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पुण्य स्वतः अनित्य स्वभाव से
पुण्य परतः अनित्य स्वभाव से
पाप स्वतः अनित्य स्वभाव से
पाप परतः अनित्य स्वभाव से
मोक्ष स्वतः अनित्य स्वभाव से
मोक्ष परत: अनित्य स्वभाव से
२.
नास्ति जीव परतः स्वभाव से
४.
नास्ति अजीव परतः स्वभाव से
६.
नास्ति आस्रव परतः स्वभाव से
८.
नास्ति बंध परतः स्वभाव से
* १०.
नास्ति संवर परतः स्वभाव से
१२.
नास्ति निर्जरा परतः स्वभाव से
१४. नास्ति मोक्ष परत: स्वभाव से
१. नास्ति जीव स्वतः स्वभाव से ३. नास्ति अजीव स्वतः स्वभाव से ५. नास्ति आनव स्वतः स्वभाव से नास्ति बंध स्वतः स्वभाव से ९. नास्ति संवर स्वतः स्वभाव से ११. नास्ति निर्जरा स्वतः स्वभाव से
७.
१३. नास्ति मोक्ष स्वतः स्वभाव से
तिलोक काव्य कल्पतरू में स्वभाववाद का पद्यबद्ध रूप
आधुनिक युग के संत तिलोकऋषि जी (१९३० ईस्वीं शती) ने
'स्वभाववाद' को इस प्रकार पद्य बद्ध किया है१३१
कहत स्वभाववादी कहा कर सके काल ।
बिना ही स्वभाव कोई वस्तु नहीं जग में।।
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