Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्वभाववाद १६५ महिला के मूंछ नहीं, बांझ न जणत बाल।
रोम नहीं करतल हाड़ नहीं रग में।। जात-जात दरखत, पान फूल भाँत-भाँत।
जलचर थलचर पंखी उड़े खग में।। काँटा बोर बबूल का कौन करे तीक्षणता। हंस को सरल भाव कपटाई बग में।। बिन ही स्वभाव मोर पंख कुण चितरत। कोकिला को कंठवर स्वरभंग कग में।। विषधर सिर मणि जहर हरे तत्काल। विष को स्वभाव निज कहीजे उरग में।। पृथवी कठिन कुण शीतलता जल मांही। पवन को चल भाव उष्णता है अग में।।
सूंठे उपशमे वाय हरड़े विरेच करे। साहसिक सिंह अति हीणता एलग में।।
अमल कटुक इक्षुरस में मधुरपण। लेष्ट बूड़े जल मच्छ तिरत अथग में।। शब्द को सुनत कान घाण वास जिह्वा स्वाद।
काया स्पर्श वेदे अष्ट देखन को दुग में।। मन को स्वभाव वेग मुख सेती बोलवा को।
काम करे हस्त युग श्रमणता पग में।। रवि तपे शशी सीत सिद्ध में अरूण लील।
देवता अतुल सुख, दुःख है नरग में।। धर्मास्तिकाय-चलण अधर्मास्तिकाय स्थिर पण।
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