Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
१३८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अर्थात् सांख्यवादी कहते हैं कि यह संसार ईश्वर से रहित एवं स्वभाव से ही उत्पन्न है। पुरुष अकर्ता और प्रकृति सब कार्यों को सम्पन्न करने वाली है।
सभी वस्तुएँ स्वभाव में ही रहती हैं, विभाव दशा को प्राप्त नहीं होती- ऐसा माण्डूक्यकारिका में स्पष्ट किया गया है।
द्वैत पारमार्थिक सत् नहीं है, किन्तु अद्वैत का विवर्त है। इसका हेतु देते हुए आचार्य शंकर कहते हैं- यथाग्निः शीतताम्, तच्चानिष्टं स्वभाववैपरीत्यगमनम्। सर्वप्रमाणविरोधात् । अर्थात् जैसे अग्नि शीतलता को प्राप्त नहीं करती, क्योंकि उसका स्वभाव उष्णता है। शीतलता उसके स्वभाव के विपरीत है। अपने स्वभाव से विपरीत दशा को प्राप्त हो जाना सभी प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण इष्ट नहीं है। इस प्रकार अद्वैत के द्वैत नहीं बनने में स्वभाव ही कारण है। अतः स्वभाव से विपरीत कोई कार्य नहीं हो सकता
न भवत्यमृतं मर्त्य न मर्त्यममृतं तथा ।
३०
प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद्भविष्यति । ।"
अर्थात् लोक में अमर वस्तु कभी भी मरणशील नहीं होती और न मरणशील कभी अमर होती है, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने स्वभाव के विपरीत नहीं हो सकती है।
गीता में स्वभाव का प्रतिपादन
गीता में मानव-स्वभाव के आधार पर वर्ण-भेद प्रतिपादित हुआ हैब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य व कर्म उनके स्वाभाविक गुणों के आधार पर विभक्त किए गए हैं। रामानुजभाष्य में इनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का स्पष्ट वर्णन समुपलब्ध है। वहाँ पर उन्होंने स्वकीय भाव को स्वभाव कहा है।
'ब्राह्मणस्य स्वभावप्रभवो रजस्तमोऽभिभवेन उद्भूतः सत्त्वगुणः सत्त्व की प्रधानता ब्राह्मण में स्वभाव से है। इस सत्त्व गुण की अधिकता से ही ब्राह्मण इन्द्रियों व अन्तःकरण का नियामक, तपस्वी, क्षमाशील, सरल, विद्वान् तथा आस्तिक बनता है। २४ 'क्षत्रियस्य स्वभावप्रभवः सत्त्वतमसो अभिभवेन उद्भूतो रजोगुणः ५ क्षत्रिय में सत्त्व व तमो गुण गौण और रजोगुण मुख्य होता है। रजोगुण की मुख्यता से क्षत्रिय स्वाभाविक रूप से शौर्ययुक्त, तेजशील, धैर्यशाली, निपुण,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
३३
www.jainelibrary.org