Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण हितोपदेश में
स्वभाव को सभी गुणों में सर्वोपरि बताते हुए हितोपदेश में कहा गया हैसर्वस्य हि परीक्ष्यन्ते स्वभावा नेतरे गुणाः। अतीत्य हि गुणान् सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते। न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चाऽपि वेदाध्ययनं दुरात्मनः। स्वभाव एवाऽत्र तथाऽतिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः।।१८
सभी गुणों में स्वभाव मूर्धन्य होता है। अतः सभी के स्वभाव की ही परीक्षा की जाती है न कि अन्य गुणों की। जैसे- गौ का दूध स्वभाव से ही मधुर होता है, वैसे ही जो व्यक्ति स्वभाव से ही सत्त्वगुणी सत्पुरुष हो, उसकी ही धर्म में प्रवृत्ति होती है। जो स्वभाव से ही दुष्ट हो उसने चाहे कई धर्मशास्त्र और वेद का अध्ययन भले ही कर लिया हो तो भी उसकी दुष्टता तथा अधर्माचरण दूर नहीं होते।
हितोपदेश में 'मित्रलाभ' प्रकरण में माता-पिता, मित्र, पशु आदि के स्वभाव को अपरिवर्तनशील बताया है
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्। कार्यकारणतश्चाऽन्ये भवन्ति हितबुद्धयः।। तिरश्चामपि विश्वासो दृष्टः पुण्यैककर्मणाम्।
सतां हि साधुशीलत्वात् स्वभावो न निवर्तते।।५९ माता, मित्र और पिता ये तीनों स्वभाव से ही हित करने वाले होते हैं और दूसरे तो कार्य-कारण रूपी स्वार्थ के लिए हितकारी बन जाते हैं। इंसानों के साथ केवल पुण्यशील कार्यों को करने वाले पशुओं का भी विश्वास करना चहिए। क्योंकि जो साधु स्वभाव वाले होते हैं, उनका सत्स्वभाव कभी नहीं बदलता है।
अन्त में पंडित नारायण ने स्वभाव को नित्य एवं दरतिक्रम्य स्वीकार करते हुए कहा है- 'यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः ६० अर्थात् जिसका जो स्वभाव है वह सर्वदा रहने वाला तथा अमिट होता है। दार्शनिक कृतियों में स्वभाववाद की चर्चा सांख्यकारिका और उसकी वृत्ति में स्वभाववाद
सांख्यकारिका में जरा-मरणादि दुःखों में स्वभाव की कारणता स्वीकार की है
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